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________________ ऋण, लेखपत्र आदि की अवधि ७७१ करना ऋण लेने के बराबर था। केवल समय के व्यवधान से ही कोई अपने उत्तरदायित्व से बच जाय, ऐसा नहीं होता था; प्रत्युत अधिकांश स्मृतियों एवं धर्मशास्त्रों ने, धार्मिक एवं अन्य पारलौकिक बातों के कारण, ऋण चुकाने अथवा ऋणोद्धार के लिए समय की कोई अवधि नहीं मानी है। किन्तु कुछ लेखकों ने सीमा निर्धारित कर दी है। कौण्डिन्य (व्यवहारमातृका, पृ० ३४१) के अनुसार दस वर्षों के उपरान्त ऋणोद्धार नहीं हो सकता; केवल अल्पवयस्क, अति बूढ़े, स्त्री, रोगी, शन्नु के आक्रमण (यदि ऋणी कहीं चला गया) के मामले में ऋणावधि नहीं होती थी। कुछ अवधि-सम्बन्धी नियम इस प्रकार हैं (१) मनु (८।१४८), याज्ञ० (२।२४), गौतम (१२१३५), वसिष्ठ (१६।१७), नारद (४१७६) आदि ने कहा है कि वास्तविक स्वामी की दृष्टि में अथवा बिना विरोध के यदि कोई अचल सम्पत्ति का उपभोग करे तो स्वामित्व टूट जाता है और यही बात इस स्थिति में चल सम्पत्ति के दस वर्षों के उपभोग से होती है। (२) किन्तु अपवाद भी है। पण (करार), सीमाओं, निक्षेपों (धरोहरों), अल्पवयस्कों, मूर्यो, राज्य, स्त्रियों एवं श्रोत्रियों (वेदज्ञ ब्राह्मणों) की सम्पत्ति के विषय में उपर्युक्त नियम नहीं लागू होता । देखिये गौतम (१२।२५-३६), वसिष्ठ (१६।१८), मनु (८।१४६), याज्ञ० (२।२५), नारद (४८१), बृहस्पति आदि)। (३) नारद ( उपनिधि, १४) के मत से शिल्पकारों को दी गयी सामग्रियों (उधार या बनाने के लिए), अन्वाहित (स्त्रीधन), न्यास (ट्रस्ट), प्रतिन्यास के मामलों में भी कोई अवधि नहीं थी। देखिये मनु (८।१४५. १४६), याज्ञ० (२०५८), वि० ध० सू० (४१७-८) । किन्तु यहाँ भी कुछ अपवाद हैं; मरीचि (स्मृतिचन्द्रिका २, पृ०६६) के मत से गायों, भारवाही पशुओं, गहनों आदि के मामलों में जब कि वे मित्रता के रूप में दिये गये हों, चार या पांच वर्ष की अवधि पर्याप्त है और इसके उपरान्त उनकी हानि मान ली जानी चाहिए। व्यास (स्मतिचन्द्रिका २,५० ६७) के मत में इस नियम का प्रयोग मित्रों, सम्बन्धियों, ब्राह्मणों तथा प्रार्थना पर राजपुरुषों का दिये गये पदार्थों के लिए नहीं होता। (४) कात्यायन (२६८-३००) के मत से २० वर्षों तक किसी अशुद्ध लेख-प्रमाण (जब कि उसे लिखने वाले ने देखा हो, जाना हो) की अवधि हो सकती है। इसी प्रकार २० वर्षों तक भीगी हुई सम्पत्ति का लेख अपरिहार्य माना जाता है जब कि विरोधी द्वारा जान-बूझकर किसी प्रकार का विरोध न खड़ा किया गया हो (भले ही सभी साक्षी मर गये हों तथा मिलाने के लिए कोई अन्य लेख आदि न हो) । (५) सीमा-निर्धारण-सम्बन्धी लेख भी २० वर्षों के उपरान्त अमिट हो जाता है (कात्यायन ३०१)। (६) भले ही साक्षी-गण जीवित हों, किन्तु ३० वर्षों के ऊपर वाले लेख का विवाद टिक नहीं सकता, जबकि वह उतने दिनों तक किसी को दिखाया नहीं गया, और न ऋणदाता ने किसी को पढ़कर सुनाया। देखिये बृहस्पति (३०८)। गत पष्ठों में हमने न्याय-विधि, प्रमाण एवं समयावधि के विषय में अवलोकन किया। कोई भी निष्पक्ष पाठक कह सकता है कि भारतीयों ने गत शताब्दियों के भीतर अपनी निजी न्याय-विधि का एक महत्तर रूप खड़ा किया है। भारतीय वस्तु-सम्बन्धी व्यवहार के विषय में नारद, बृहस्पति एवं कात्यायन ने बहुत सम्मानाहं कार्य किया। ये लेखक ६०० ई० के पूर्व हुए थे और प्रथम दो तो इस काल के कई शताब्दियों पूर्व हुए थे। इन्होंने न्यायाधीश की नियुक्ति, उसके कर्तव्यों, उपयक्त न्याय-विधि-कार्य, प्रमाण एवं कालावधि-सम्बन्धी कानन, जयपन और उसका कार्यान्वयन, अपराध एवं दण्ड के विषय में बड़ा सुन्दर अनुक्रम उपस्थित किया है। भारतीय व्यवहार-शास्त्र संसार में १८वीं शताब्दी तक प्रचलित सभी व्यवहार-विधियों के समकक्ष आता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002790
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size12 MB
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