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धर्मशास्त्र का इतिहास का हलका दण्ड लगाया है । मेधातिथि एवं कुल्लूक का कहना है कि यदि जादू सफल हो जाय तो दण्ड मृत्यु-दण्ड तक पहुँच सकता है । बृहस्पति ने जड़ी-बूटियों से मन्त्रयोग सिद्ध करनेवालों के लिए देश-निष्कासन के दण्ड की व्यवस्था दी है।
कौटिल्य (२।५) ने व्यवस्था दी है कि राजधानी में स्त्रियों एवं पुरुषों के लिए अलग-अलग एवं सुरक्षित प्रवेशद्वार वाले बन्दीगृहों की योजना होनी चाहिए। उन्होंने (२।३६) यह भी कहा है कि नागरक राजा के जन्म-दिन के उपलक्ष्य में तथा प्रति मास पूर्णिमा को नवयुवकों, बूढ़ों, रोगियों एवं असहायों को छोड़ दे, या वे लोग जो दयालु हैं उनका अर्थ-दण्ड दे दें या अन्य लोग उन बन्दियों को छुड़ाने के लिए जामिन हो जायें। बन्दियों को प्रति दिन काम करने या पांच दिनों में एक दिन काम करने या कोड़े आदि शारीरिक दण्ड पा लेने पर छोड़ देना चाहिए । वे नया देश जीतने, राजकुमार के जन्म अथवा राज्याभिषेक के दिन छोड़ दिये जा सकते हैं। ये छूटें कौटिल्य द्वारा ही दी गयी हैं। कौटिल्य की ये बातें बहत अंशों में अशोक ने कार्यान्वित की थी (दिल्ली, टोपरा स्तम्भाभिलेख सं०४, ५, कार्पस इंस्क्रिप्संस इण्डिके रम, जिल्द १, पृ० १२३, पृ० १२६-१२८ एवं एपिरॅफिया इण्डिका, जिल्द २, पृ० २५३-५४ एवं पृ० २५८-२५६)।
मनु (६२८८) ने कहा है कि बन्दीगृह राजमार्ग पर बनाना चाहिए, जिससे लोग क्लेश एवं दुर्दशा में पड़े अपराधियों को देखकर स्वयं अपराध करने से बचें । कालिदास (मालविकाग्निमित्र, अंक ४७; रघुवंश १७११६) ने बन्दियों के छोड़ने एवं मृत्यु-दण्ड की क्षमा के लिए राज्याभिषेक आदि का दिन शुभ माना है । और देखिये बृहत्संहिता (४७।८१), मृच्छकटिक (१०), हर्षचरित (२), जहाँ बन्दियों की मुक्ति का उल्लेख है।
मनु (६२४३) ने लिखा है कि राजा को महापातकी सम्पत्ति नहीं लेनी चाहिए, अन्यथा लोभ के कारण ऐसा करने से अपराध का प्रभाव उस पर भी पड जायगा।ऐसे दण्ड-धन को वरुण की अभ्यर्थना के लिए जल में डाल देना चाहिए या गुणी एवं विद्वान ब्राह्मणों को दान देना चाहिए, क्योंकि वरुण राजाओं का राजा है, और ऐसे ब्राह्मण अखिल विश्व के स्वामी हैं (मनु ६२४४-२४५) । मनु (६।२४६-२४७) ने आगे कहा है कि जिस देश के राजा दुष्ट पापियों की सम्पत्ति लेना नहीं चाहते, उसके निवासी दीर्घ आयु वाले होते हैं, वहाँ अन्न उपजते हैं, शिशु-मृत्यु नहीं होती, आदि।
_ ऋण के पुनर्लाभ के अतिरिक्त (इसका वर्णन आगे होगा) किसी अन्य विषय में कानून अपने हाथ में न लेना एक सामान्य नियम था। किन्तु नारद (पारुष्य ११-१४) में आया है--'यदि श्वपाक (कुत्ता खाने वाला), मेद (एक वर्णसंकर जाति), चण्डाल, अंग-भंगी, वध-वृत्ति (पशु मारकर जीविका चलानेवाला), हस्तिप (हाथीवान), ब्रात्य (उपनयन संस्कार न करने पर जातिच्युत), दास, गुरुजनों एवं आध्यात्मिक गुरु की अवमानना करने वाला आदि अपनी सोमा के बाहर जायें तो उन्हें वे लोग (जिनके प्रति ऐसे लोग मर्यादाहीन रहते हैं) उसी समय दण्डित कर सकते हैं। ऐसे मामलों में राजा कुछ नहीं कहता। ऐसे लोग मानवता के मल हैं और उनकी सम्पत्ति भी अपवित्र है। राजा उन्हें शारीरिक दण्ड दे सकता है (कोड़ा मारना आदि), किन्तु उन पर अर्थ-दण्ड नहीं लगा सकता। मिताक्षरा (याज्ञ० २।२७०) ने वृद्ध-मनु का इसी अर्थ में उद्धरण देकर कहा है कि गम्भीर अपराधों में राजा को अर्थदण्ड लेने से दूर रहना चाहिए।
लेन-देन आदि के अवधि-सम्बन्धी व्यवहार (कानून) के विषय में भी कुछ कहना चाहिए। अनेक कारणों से स्मृतियों एवं निबन्धों में अवधि-सम्बन्धी नियमों को उतनी प्रधानता नहीं मिली है। ऋणी के अतिरिक्त उसके पुत्रों, पौत्रों एवं प्रपौत्रों को भी ऋण चुकाना पड़ता था। इसका एक धार्मिक पहलू भी था, जिसे हम आगे पढ़ेंगे (ऋणादान बाले प्रकरण में)। ऋणादान के सिलसिले में किसी निश्चित अवधि का निर्धारण नहीं होता था। बिना धन दिये क्रय
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