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धर्मशास्त्र का इतिहास
कड़ी या बेड़ी पहनाना, उपहास कराना ( सिर मुड़ा देना, अपराधी को साथ लेकर डोंड़ी पिटवाना, गधे पर चढ़ाकर चारों ओर घुमाना, उस पर अपराधों के चिह्न गोद देना । मनु ( ८।१२५ ) ने तीन उच्च जातियों के दस अंगों पर दण्ड देने की व्यवस्था दी है, यथा--गुप्तांगों, पेट, जिह्वा (पूरी या आधी), हाथ, पाँव, आँखें, नाक, कान, धन एवं सम्पूर्ण शरीर पर ; किन्तु ब्राह्मण को इस प्रकार के दण्ड न देकर देश से निकाल देते थे । बृहस्पति ने इस सूची में गरदन, अंगूठा एवं तर्जनी, मस्तक, अधर, पिछला भाग, नितम्ब एवं आधा पाँव भी जोड़ दिया है और सम्पत्ति एवं सम्पूर्ण शरीर को छोड़ दिया है। गौतम ( १२।४३ ), कौटिल्य ( ४1८), मनु ( ८1१२५, ३८०-३८१ ), याज्ञ० (२० २७०), नारद ( साहस, ६-१० ), विष्णु ( ४\१-८), बृहस्पति, वृद्ध हारीत ( ५।१६१ ) ने व्यवस्था दी है कि किसी भी अपराध में ब्राह्मण को मुत्यु दण्ड या शारीरिक दण्ड नही दिया जाना चाहिए; यदि वह मृत्यु दण्ड वाला अपराध करे तो उसका सिर मुड़ा देना चाहिए, उसे देश निकाला ( नगर-निष्कासन, नारद के मत से ) देना चाहिए, उसके मस्तक पर उसके द्वारा किये गये अपराध-चिह्न का दाग लगाकर गधे पर चढ़ाकर उसे घुमाना चाहिए। यम (स्मृतिचन्द्रिका २, पृ० ३१७) एवं व्यवहारप्रकाश ( पृ० ३६३ ) ने व्यवस्था देते हुए कहा है कि ब्राह्मण को शारीरिक दण्ड नही देना चाहिए, उस अपराधी को किसी एकान्त स्थान में बन्द रखना चाहिए और उसे केवल साधारण जीविका का साधन प्रदान करना चाहिए, या राजा उसे एक मास या एक पक्ष तक चरवाहे का कार्य करने को आज्ञापित करे या उससे ऐसा कार्य ले जो भद्र ब्राह्मण के लिए योग्य न हो । मिताक्षरा ( याज्ञ० २।२७० ) ने कहा है कि यदि अपराधी ( चाहे वह ब्राह्मण हो या अन्य कोई) ने महान् अपराधों के कारण प्रायश्चित्त न किया हो तो उसके मस्तक पर स्त्री के गुप्तांगों (गुरु की शय्या अपवित्र करने के कारण ) का चिह्न, कलवरिया (सुरा पीने के कारण ) का चिह्न, कुत्ते के पैर का चिह्न ( चोरी के अपराध में) तथा शिरहीन शव का चिह्न (ब्रह्महत्या के अपराध में ) दाग देना चाहिए । इस विषय में देखिए राजतरंगिणी (४।६६-१०६) । और भी देखिए गौतम (१२।४४) एवं मनु ( ६ । २४१ ) | आपस्तम्बध मं सूत्र ( २।१०।२७।१६-१७) का कथन है कि यदि ब्राह्मण हत्या, चोरी करता तथा किसी कि सम्पत्ति बलवश छीन लेता था तो जीवन भर उसे वस्त्रखण्ड से आँखें बन्द रखनी पड़ती थीं ( किन्तु इन अपराधों में शूद्र को मृत्यु दण्ड मिलता था ) । और देखिए वृद्ध हारीत ( ७।२०६ - २१० ) । ऐसा नहीं सोचना चाहिए कि ब्राह्मण के मृत्यु दण्ड के सम्बन्ध में सभी स्मृतिकार समान बातें कहते हैं । कात्यायन (८०६) का कहना है कि भ्रूण हत्या ( गर्भपात कराना), सोने की चोरी, ब्राह्मण स्त्री की किसी तीक्ष्ण हथियार से हत्या या पतिव्रता स्त्री की हत्या के अपराधों में ब्राह्मण को भी मृत्यु दण्ड दिया जा सकता है। कौटिल्य (४।११) ने कहा है कि राज्य कामुक, अन्तःपुरदूषक, राजा के विरोध में जंगली जातियों एवं शत्रुओं को उभाड़ने वाले, क्रांन्ति करने वाले ब्राह्मण को जल में डुबा देना चाहिए। मृच्छकटिक नाटक में ब्राह्मण चारुदत्त को राजापालक ने मृत्यु - दण्ड की आज्ञा दी थी। जातकों में ब्राह्मण के मृत्यु दण्ड का उल्लेख मिलता है ( फिक, 'सोशल ऑर्गनाइजेशन', पृ० २१२ ) ।
में
शान्तिपर्व (अध्याय २६८) में राजा द्युमत्सेन एवं उनके पुत्र राजकुमार सत्यवान् के बीच मृत्यु दण्ड के विषय हुए मनोरंजक कथनोपकथन की चर्चा पायी जाती है। इस बातचीत में मृत्यु दण्ड के विरोधियों का मत अंकित है । राजकुमार ने मृत्यु-दण्ड का विरोध करते हुए तर्क दिये हैं कि गम्भीर अपराधों में भी दण्ड हलका होना चाहिए, क्योंकि जब डाकुओं को मृत्यु दण्ड दिया जाता है तो बहुत से निरपराधियों की हानि होती है, यथा--उनकी स्त्री, बच्चे, माँ आदि की; अतः जो अपराधी पुरोहितों के समक्ष पुनः अपराध न करने की सौगन्ध खा लेते हैं तो प्रायश्चित्त के उपरान्त उन्हें छोड़ देना चाहिए; यदि बड़े व्यक्ति कुमार्ग में जायें तो उनको दण्ड उनकी महत्ता के अनुसार ही देना चाहिए। राजा ने प्रत्युत्तर दिया कि प्राचीन काल में जब लोग सत्यवादी एवं मृदु स्वभाव के थे तो 'धिक्कार' शब्द ही दण्ड-रूप में पर्याप्त था और शाब्दिक प्रतिरोध एवं भर्त्सना से काम चल जाता था, किन्तु
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