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दण्ड निर्धारण की प्रक्रिया
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के । " स्त्रियों पर अपेक्षाकृत कम दण्ड लगता था । कात्यायन ( ४८७) ने लिखा है -- एक ही प्रकार के अपराध में पुरुष
अपेक्षा स्त्री को आधा दण्ड देना पड़ता है । मृत्यु दण्ड न देकर उसका कोई अंग काट लिया जाता है । कौटिल्य (३1३) के मत से स्त्री १२ वर्षों में तथा पुरुष १६ वर्षों में वयस्क हो जाते हैं और लेन-देन कर सकते हैं । यदि वे वयस्क होने पर नियम का उल्लंघन करते हैं तो स्त्री को १२ पण तथा पुरुष को उसका दूना दण्ड देना पड़ता है । अंगिरा (मिताक्षरा द्वारा वाज्ञ० ४ । २४३ में उद्धृत) का कहना है कि अस्सी वर्षीय बूढ़े, सोलह वर्ष से नीची अवस्था वाले बच्चे, स्त्रियों एवं रोगग्रस्त पुरुषों को आधा प्रायश्चित्त करना पड़ता है। इसी स्थान पर शंख का उद्धरण कि पाँच वर्ष से कम अवस्था का बच्चा किसी क्रिया द्वारा न तो अपराध करता है और न पाप; उसे न तो दण्ड मिलता है और न प्रायश्चित्त करना पड़ता है। आधुनिक भारतीय दण्ड विधान में सात वर्ष तक के बच्चे द्वारा अपराध नहीं माना जाता । दण्ड की गम्भीरता जाति पर भी निर्भर थी ।
चोरी के मामलों में वैश्य, क्षत्रिय एवं ब्राह्मण को शूद्र की अपेक्षा क्रम से दूना, चौगुना तथा अठगुना दण्ड देना पड़ता था, क्योंकि उन्हें अपेक्षाकृत अपराध की गुरुता अधिक ज्ञात रहती है ( गौतम १२।१५।१६ ; मनु ८३३८३३६)। इसे कात्यायन (४८५) एवं व्यास ने सभी अपराधों में सामान्य नियम के रूप में माना है । मानहानि के मामलों में दण्ड के लिए उच्चतर जातियों के साथ पक्षपात पाया जाता है। गौतम (१२।१, ८-१२), मनु ( ८।२६७-२६८ = नारद, पारुष्य १५-१६), याज्ञ० (२।२०६ । २०७ ) का मत है कि क्षत्रिय, वैश्य या शूद्र जब ब्राह्मण की अवमानना ( मानहानि ) करते हैं तो उन्हें क्रम से १००, १५० पणों का दण्ड तथा शारीरिक दण्ड (जीभ काट लेना) मिलता है, जब ब्राह्मण किसी क्षत्रिय, , वैश्य या शूद्र की मानहानि करता है तो उसे क्रम से ५०, २५ या १२ पण देने पड़ते हैं (गौतम १२।१३ के अनुसार अन्तिम के लिए कुछ भी नहीं देना पड़ता ) । व्यभिचार एवं बलात्कार के मामले में अपराधी की जाति एवं तत्सम्बन्धी नारी पर ध्यान दिया जाता था । अपनी जाति की नारी के साथ व्यभिचार करने पर याज्ञ० (२।२८६) ने सबसे अधिक दण्ड-व्यवस्था दी है, यदि अपराधी ऊँची जाति का है तो दण्ड मध्यम होता है, किन्तु यदि पुरुष नीच जाति का है तो मृत्यु - दण्ड होता है और रत्नी के कान काट लिये जाते हैं। पीड़ा देने, अंग-भंग करने या मार डालने पर शारीरिक दण्ड कई विधियों से दिये जाते थे । प्रथम प्रकार के अपराध में निम्नांकित दण्डों की व्यवस्था थी; बन्दी बनाना, पीटना, हथ
८. दण्ड वाले सिक्कों की धातु के विषय में कई मत हैं। विज्ञानेश्वर के मत से मनु (८३७८) के दण्डसंबंधी पण ताम्र के है । भारुचि ( सरस्वतीविलास, पृ० १५०) के अनुसार ये सिक्के सोने के हैं । सरस्वतीविलास ने इस विषय में लोकाचार को श्रेष्ठता दी है। व्यवहारमयूख ( पृ० २५५ ) का कथन है कि जहाँ सिक्के का नाम नहीं है वहाँ उसे पण समझना चाहिए एवं चाँदी का मानना चाहिए और उसे एक कर्ष की तोल समझना चाहिए तथा एक कर्ष बराबर होता है १/४ पल के । बृहस्पति (स्मृतिचन्द्रिका २, पृ० ६६) का कथन है कि मनु ( ८।१३२-१३६) की तालिका डाँड़ी में संलग्न धूलि-कण से लेकर कार्षापण तक दिव्यों एवं दण्ड के सम्बन्ध में लागू होती है। अपराधों एवं दण्डों के विषय में चालुक्य विक्रमादित्य चतुर्थ (शक सं० ६३४) के गदग अभिलेख ने प्रकाश डाला है, जिसके अनुसार मान-हानि, आक्रमण, छुरा निकालने, छुरा भोंकने एवं व्यभिचार ( कुमार द्वार) के मामले में क्रम से २ पण, १२ पण, ३ गद्याण, १२ गद्याण एवं ३ गद्याण दण्ड-रूप में देने पड़ते थे (एपिनेफिया इण्डिका, जिल्द २०, पृ० ६४) ।
८. नारद ( ४/८५ ) के अनुसार बच्चा शिशु कहलाता है और वह आठ वर्ष तक गर्भस्थ जैसा माना जाता है तथा १६ वर्षो तक बाल या पोगण्ड कहलाता है ।
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