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धर्मशास्त्र का इतिहास व्यक्ति का अपकार हुआ रहता है वह अपकारी के विरुद्ध एक साधारण आचार-सम्बन्धी क्रिया के रूप में विवाद खड़ा करता है और जयी होने पर क्षतिपूर्ति के रूप में धन पाता है। डा. प्रियानाथ सेन ने 'हिन्दू जूरिस्पूडेंस' पर अपने 'टैगोर ला लेक्चर्स' (सन् १६१८,व्याख्यान १२) में एक तथ्य उपस्थित किया है कि मेन महोदय का यह सामान्यीकरण भारत के प्राचीन व्यवहार-शास्त्र पर नहीं लागू होता । हमने बहुत पहले ही देख लिया है कि राजा स्वयं अपनी ओर से छलों, पदों एवं अपराधों की छानबीन करा सकता है और यह स्पष्ट है कि चोरी, आक्रमण, व्यभिचार, बलात्कार, नर-हत्या के अपराधों में केवल धन देकर अन्याय-ग्रस्त व्यक्ति की क्षतिपूर्ति नहीं की जाती, प्रत्युत उसके साथ शारीरिक दण्ड भी दिया जाता है । इस विषय में देखिए मनु (८।२८७), याज्ञ० (२।२२२), बृहस्पति, कात्यायन (७८७), जहाँ यह व्यवस्था दी हुई है कि शरीर को घायल करने या अंगभंग करने के जुर्म में अपराधी को दण्ड के साथ घाव अच्छा करने के लिए व्यय करना पड़ता था और पीड़ित को सन्तोष देना पड़ता था । आपस्तम्बधर्मसून (१।६।२४।१ एवं ४) का कथन है कि क्षेत्रिय के हताको शत्रुता दूर करने के लिए(उसके सम्बन्धियों को क्षतिपूर्ति के रूप में) एक सहस्र गौएं देनी पड़ती थीं और प्रायश्चित्त-स्वरूप एक बैल भी देना पड़ता था। छान्दोग्योपनिषद् के अनुसार उन दिनों चोरी के अपराध में मृत्यु-दण्ड दिया जाता था। तैत्तिरीय संहिता (२।६।१०।१) में आया है कि वह जो ब्राह्मण को धमकी देता है उसे एक सौ देना पड़ता है, जो उसे पीट देता है उसे एक सहस्र देना पड़ता है । किन्तु यहाँ यह प्रकट नहीं हो पाता कि ये सौ या सहस्र की संख्याएँ दण्ड के रूप में थीं या केवल तुष्टि-प्रदान के लिए । ऋग्वेद (२॥३२॥४, तैत्तिरीय संहिता ३।३।११।५) में कवि राका (पूर्णमासी के प्रतीक) की अभ्यर्थना करता है कि वह प्रसन्न होकर ऐसा वीर पुत्र दे जो शतदाय हो । सायण ने शतदाय को “प्रचुर दाय-युक्त या प्रचुर सम्पत्ति-युक्त" के अर्थ में लिया है, जो उपयुक्त जंचता है । तैत्तिरीय सहिता (३।३।११।५) के 'शतदायं वीरम्' का अर्थ प्रो० कीथ यों लगाते हैं--'वह वीर जो हत्या किये जाने पर सौ मुद्राएँ दिला सके ।' किन्तु यह युक्तिसंगत नहीं है, क्योंकि यह विचित्र-सा लगता है कि देवी से पत्र के लिए अभ्यर्थना की जाय तो साथ-ही-साथ यह भी अभिलाषा कि उसकी हत्या होने पर इतना ध में मिले।
अपराधों के लिए दण्ड की व्यवस्था के उपयोगों के विषय में स्मृतिकार सतर्क थे, किंतु उन्होंने किसी दण्ड-शास्त्र का निर्माण नहीं किया। जिसका अपकार होता है वह प्रतिशोध लेने की प्रबल इच्छा रखता है और अन्य लोग भी उसके साथ सहानुभूति रखते हैं । सभ्य देशों के लोग कानून को अपने हाथ में नही लेते, अत: राज्य का कर्तव्य होता है कि वह यथासम्भव अपराधी को उचित दण्ड देकर उन्हें अपकार के बदले में सन्तोष दे। याज्ञ० (२०१६) एवं नारद (१।४६) ने लिखा है कि जब कोई व्यक्ति अपनी हानि के विषय में बिना न्यायानुकूल आवेदन किये अपकारी से कुछ वसूल करना चाहता है या सन्देह कर रहा है तो उसे दण्ड मिल सकता है और वह अपनी चाही हुई वस्तु भी नहीं प्राप्त कर सकता । सभी प्राचीन समाजों में प्रतिशोध की भावना पायी गयी है, और प्रतिशोध (दण्ड-उद्देश्य) का कानून भी पाया जाता है, यथा आँख के बदले आँख लेना एवं दाँत के बदले दाँत लेना । मनु (८।२८०), नारद (पारुष्य, श्लोक २५), याज्ञ० (२।२१५), विष्णुधर्म सूत्र (५१६) एवं शंख-लिखित ने व्यवस्था दी है कि यदि हीन जाति का कोई व्यक्ति ब्राह्मण के किसी अंग को चोट पहुंचाता है तो उसका चोट पहुंचाने वाला अंग काट लेना चाहिए।
एक अन्य दण्ड-उद्देश्य यह था कि वैसा अपराध पुनःन होने पाये । अपराधी को दण्ड देकर अन्य लोगों के समक्ष उदाहरण रखा जाता था कि वे वैसी हिंसा अथवा अपराध करने से हिचकें। राजधर्म वाले अध्याय में हमने इस विषय में पढ़ लिया है। समाज-रक्षा तथा समाज-सुख की स्थापना ही दण्ड का उद्देश्य था। शान्तिपर्व (१५।५-६) में आया है कि राजदण्ड, यम-यातना एवं जनमत के भय से लोग पाप नहीं करते। यही बात मत्स्यपुराण (२७५।१६-१७) में भी पायी
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