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________________ पुनर्वाचार या अपील ७६१ अपने पूर्ववर्ती के निर्णय को, जब वह न्यायानुकूल न हुआ हो अथवा अबोधता का परिचायक हो, फिर से दुरुस्त कर सकता है (याज्ञ० २।३०६)। याज्ञ ० (२१४ एवं ३०५)ने व्यवस्था दी है कि यदि पक्षपात, लोभ या भय से सभ्यों ने निर्णय किया हो तो विवाद का राजा द्वारा पुनरवलोकन होना चाहिए और यदि सन्देह की पुष्टि हो जाय तो सभ्यों एवं पूर्व-जयी पक्ष पर उस दण्ड का दूना दण्ड लगाना चाहिए जो विजित दल पर लगता है । यही बात नारद (१।६६) ने भी कही है। मनु (६।२३१ = मत्स्यपुराण २२७।१५८ एवं २३४) ने व्यवस्था दी है कि न्यायाधिकारीगण घूस लेकर विवादियों को हरा दें तो राजा द्वारा उनकी सारी सम्पत्ति छीन ली जानी चाहिए,और यदि अमात्य लोग या मुख्य न्यायाधीश किसी विवाद का निर्णय ठीक से न करें (किन्तु घूस न लें)तो राजा को चाहिए कि वह विवाद को फिर से देखे और ठीक निर्णय देकर उन अमात्यों या मुख्य न्यायाधीश पर १००० पण का दण्ड लगाये। यद्यपि किसी स्मृति में एक न्यायालय या न्यायाधीश से दूसरे न्यायालय या न्यायाधीश के पास विवाद को स्थानान्तरित करने का स्पष्ट उल्लेख नहीं मिलता, किन्तु व्यवहार में यह पद्धति अवश्य लागू की जाती रही होगी (किन्तु इसका व्यवहार बहुत कम होता था) । 'सेलेक्शन्स फ्राम पेशवाज दफ्तर' (जिल्द ४३, पृष्ठ १०८) नामक ग्रन्थ में एक पत्र का हवाला दिया गया है जिसे प्रसिद्ध मन्त्री नाना फड़नवीस ने पेशवा माधवराव को लिखा था। नाना फड़नवीस ने माधवराव से स्थानान्तरण के लिए दिये गये आदेश को लौटाने के लिए आग्रह किया था। रामशास्त्री एक अत्यन्त पक्षपातरहित एवं कठोर जीवन के व्यक्ति थे। उन्हीं के न्यायालय से विवाद उठाकर किसी अन्य न्यायाधीश के न्यायालय में ले जाने का आदेश माधवराव ने दिया था, क्योंकि विवादियों में एक को भय था कि रामशास्त्री किसी एक विवादी का पक्ष करेंगे । मनु (८।१७४-१७५) का कथन है कि जो राजा अपनी प्रजा के विवादों को अन्यायपूर्वक तय करता है वह शत्रुओं द्वारा शीघ्र ही विजित हो जाता है और वह राजा, जो अपने मनोभाव को रोककर पक्षपातरहित झगड़ों का निपटारा करता है और शास्त्रविहित नियमों का पालन करता है, वह प्रजा के मन से उसी प्रकार मिल जाता है जिस प्रकार नदियाँ समुद्र से मिल जाती हैं। उचित न्याय करने एवं सम दृष्टि रखने से राजा को लौकिक एवं पारलौकिक लाभ प्राप्त होता है, अर्थात् शास्त्रानुकल निर्णय देने से उसे इस लोक में यश और परलोक में स्वर्ग प्राप्त होता है (बृहस्पति एवं नारद १७४)। अपराध वह क्रिया या अतिक्रम है जिससे कानून टूटता है और जन-दण्ड प्राप्त होता है । किन्तु सभी प्रकार के व्यवहार-भंगों से दण्ड नहीं मिलता; केवल थोड़े ही ऐसे होते हैं। जो अतिक्रम अथवा भंग समाज की प्रचलित दशाओं में गड़बड़ी उत्पन्न करते हैं, जिन्हें समाज, राजा या व्यवहार-विधि रोकना चाहती है, उन्हें ही अपराधों की संज्ञा दी जाती है । गड़बड़ी अथवा अपकार किसी विशिष्ट क्रिया में नहीं, प्रत्युत उस क्रिया में निहित परोक्ष अथवा अप्रत्यक्ष व्यवहार में पाया जाता है। एक अतिक्रम कभी अपराध घोषित हो सकता है और वही किसी दूसरे समय अथवा किसी देश में अपराध नहीं भी कहा जा सकता । यथा भारतीय व्यवहार-विधि (इंडियन पेनल कोड, परिच्छेद ४६७) में व्यभिचार अथवा बलात्कार अपराध माना जाता है, किन्तु वही इंग्लैंड के कानून की दृष्टि में अपराध न होकर मात्र गलत आचार (सिविल रांग) है। बहुत-से अपराध एवं दोष पापों की श्रेणी में आते हैं और उनसे लौकिक दण्ड एवं धार्मिक अनुशासन (प्रायश्चित्त) प्राप्त होते हैं । इस विषय में देखिए मनु (६२३६ एवं २४०), बृहस्पति एवं पैठीनसि (दण्डविवेक, पृ० ७६)। मेन ने अपनी पुस्तक ‘ऐश्यण्ट लॉ' (अध्याय १०, सन् १८६६ का संस्करण) में यूनान एवं रोम की व्यवहार-पद्धतियों की जाँच करके एक सामान्य बात कह देनी चाही है-"प्राचीन जातियों की दण्ड विषयक विधि या कानून अपराध-सम्बन्धी कानून नहीं है, प्रत्युत वह अपकारों या दुष्टताओं से सम्बन्धित कानून है जिसे अंग्रेजी में टार्ट स कहा जाता है। जिस २४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002790
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size12 MB
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