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धर्मशास्त्र का इतिहास
कात्यायन (व्यवहारसार प०१०१)के अनुसार जयपन में सफल पक्ष की चल एवं अचल सम्पत्ति का ब्याज एवं उत्पन्न फल प्राप्त करने के लिए (जब तक विवाद समाप्त न हो जाय) किसी मध्यस्थ को रखने की बात लिखी रहनी चाहिए।६ कात्यायन (४७७-४८०) ने जय-सम्बन्धी राजाज्ञा को कई विधियों से कार्यान्वित करने को कहा है। राजा को चाहिए कि वह ब्राह्मण-ऋणी से अनुराग-भरे शब्दों में जयी ऋणदाता को ऋण लौटाने के लिए कहे, अन्य लोगों से देशाचार के अनुसार देने को कहे तथा दुष्ट लोगों को बन्दी बनाकर सफल पक्ष को सन्तुष्ट करे । राजा को चाहिए कि वह साझेदार या मित्र द्वारा ऋण लौटाने के लिए किसी बहाने का सहारा ले (यथा--किसी उत्सव के अवसर पर उससे कोई आभूषण या कोई अन्य सामान लेकर उसे ऋणदाता को दे दे)। इसी प्रकार के साधनों द्वारा राजा को चाहिए कि वह व्यापारियों, कृषकों एवं शिल्पकारों द्वारा भी ऋण लौटाने की व्यवस्था करे । यदि ऐसा न हो सके तो ऋणी को बन्दीगृह में भेज देना चाहिए। किन्तु ब्राह्मण ऋणी के साथ ऐसा व्यवहार वजित था । मनु (६।२२६)ने कहा है कि ब्राह्मणों के अतिरिक्त अन्य तीनों वर्गों के लोग यदि दण्ड न दे सकें तो उन्हें राजा के लिए कोई कार्य करना चाहिए, किन्तु ब्राह्मणों को थोड़ा-थोड़ा लौटाने के लिए आज्ञापित करना चाहिए । यदि ब्राह्मण ऋणन दे सके तो उसके विरुद्ध अन्य कार्य नहीं किया जा सकता, केवल उसे किसी अन्य के (जामिन) बनाने को उद्वेलित करे । आजकल भी हार जाने पर ऋणी को पकड़ लिया जाता है और उसे जेल भेज दिया जाता है (किन्तु धन देने की डिग्री में स्त्रियों के साथ ऐसा व्यवहार नहीं होता) देखिए इण्डियन सिविल प्रोसीजर कोड (नियम ५५-५८)। स्त्रियों के लिए कात्यायन (४८८-४८६)ने कुछ विवेकपूर्ण नियमों की व्यवस्था दी है; "जो स्त्रियाँ स्वतन्त्र नहीं होती उन्हें व्यभिचार के मामलों में बन्दी नहीं बनाया जाता, केवल पुरुष को ही अपराधी सिद्ध किया जाता है; स्त्रियाँ अपने स्वामी द्वारा (जिस पर वे आश्रित होती हैं) दण्डित होनी चाहिए, किन्तु राजा द्वारा पुरुष दण्ड-स्वरूप बन्दी बना लिया जाना चाहिए। यदि पति विदेश में हो तो स्त्री को बन्दी बना लेना चाहिए। किन्तु पति के लौटने पर उसे मुक्त कर देना चाहिए।" स्मृतिचन्द्रिका (२, पृ०२३३) ने कात्यायन के प्रथम अंश को इस प्रकार समझाया है कि यदि किसी हीन जाति के पुरुष के साथ स्त्री ने व्यभिचार किया है और वह आश्रित है तो उसे व्यभिचार के लिए प्रायश्चित्त करना चाहिए।
नारद (२०४०) का कथन है कि यदि कोई पक्ष अपने आचार से (अपने व्यवहार या असत्य साक्षी या कूट लेख्य प्रमाण देने से) हार गया है तो विवाद का पुनरवलोकन (रीट्रायल या रेव्यू आव जजमेण्ट) नहीं होता, किन्तु जब साक्षियों अथवा सभ्यों की बेईमानी के कारण वह हार गयाहै तो फिर से मकदमा चलाया जा सकता है। राजा के न्यायालय के निर्णयों के चार अपवाद माने गये हैं--(१) यदि विवादी मूर्खता या अविनीतता के कारण निर्णय को अनुपयुक्त समझता है तो उसके मुकदमे का पुनरुद्धार अथवा पुनरवलोकन हो सकता है, किन्तु ऐसी स्थिति में उसे हारने पर हारने वाले पक्ष पर लगने वाले दण्ड का दुगना देना पड़ता है (याज्ञ० २।३०६; नारद ११६५; कात्यायन ४६६)। (२) यदि पूर्व निर्णय कूट विधि या बलवश हुआ है तो वह समाप्त किया जा सकता है (याज्ञ० २।३१)। (३)यदि विवादी अयोग्य हो अर्थात् अल्पवयस्क हो, स्त्री हो या पागल या मद्यपी हो, गम्भीर रूप से बीमार हो, विपत्तिग्रस्त हो;
और जब बिना नियुक्त किये किसी अन्य द्वारा (जो किसी प्रकार भी सम्बन्धित न हो) या शन्नु द्वारा विवाद लड़ा जाय तो निर्णय स्थगित किया जा सकता है और पुनरवलोकन हो सकताहै (नारद ११४३, याज्ञ० २।३१-३२)। (४) राजा
६. मध्यस्थस्थापितं द्रव्यं चलं वा यदि वा स्थिरम । पश्चात्तत्सोदयं दाप्यं जयिने पत्रमुत्तरम ॥ कात्यायन (व्यवहारसार पृ० १०१) । इस श्लोक को स्मृविचन्द्रिका (२, पृ० १२०) ने नारद का माना है।
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