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________________ फैसला; शुल्क; पुनर्विचार ७५६ देना पड़े। जब विवाद का निर्णय कुल के न्यायाधिकरण (डोमेस्टिक ट्राइबुमल) द्वारा किया जाता है तो जयपन्न नहीं दिया जाता, केवल निर्णयपत्र से काम चल जाता है।४ असफल पक्ष को राजा के लिए अर्थ-दण्ड देना पड़ता था और सफल पक्ष राजा तथा न्यायाधीश द्वारा सम्मानित होता था तथा उसे विवाद की वस्तु पर अधिकार प्राप्त हो जाता था। मनु (८।५१) का कहना है कि धन-सम्बन्धी मामलों (अर्थमूल विवादों अर्थात् सिविल झगड़ों) में असफल पक्ष को राजा की आज्ञा द्वारा सफल पक्ष के लिए निर्णयऋण (जजमेण्ट डेट) और शक्ति के अनुसार राजा को जुरमाना देना पड़ता था। मनु (८।१३६) ने यह भी कहा है कि यदि प्रतिवादी न्यायालय में पांच प्रतिशत दण्ड देने की बात स्वीकार करता है, जिसे उसे राजा को देना है (और आगे चलकर) नकार जाता है और फिर यह बात सिद्ध हो जाती है तो उसे दूना (दस प्रतिशत) दण्ड देना पड़ता है। यही न्यायालय का शुल्क (कोर्ट फी) कहा जाता है। यदि दोनों दलों ने शर्त बदी हो कि यदि हार जायेंगे तो इतना (यथा १०० पण) देंगे, तब हारने पर उन्हें उतना धन दण्ड के साथ राजा को देना पड़ता था और विवाद का धन सफल पक्ष को मिलता था (याज्ञ० २।१८ एवं नारद २१५)। ऐसे ही नियम विष्णुधर्मसूत्र (५।१५३।१५६) में भी मिलते हैं । हिंसामूल (क्रिमिनल) विवादों में जो दण्ड दिये जाते थे उनका वर्णन हम आगे करेंगे। अब हमें यह देखना है कि किन मामलों में निर्णयों का पुनरवलोकन किया जाता था। सामान्य नियम मनु (६।२३३) द्वारा दिये गये हैं--"जब कोई व्यवहार-सम्बन्धी विधि सम्पन्नहो चुकी हो (तीरित) या वहाँ तक जा चुकी हो जब कि असफल पक्ष से दण्ड लिया जा सकता है, तब बुद्धिमान् राजा उसे काट नहीं सकता।" तीरित एवं अनुशिष्ट शब्दों की व्याख्या कई प्रकार से की गयी है। तीरित शब्द बहुत पुराना है और अशोक के दिल्ली स्तम्भाभिलेख (४) में भी आया है (एपिप्रैफिया इण्डिका, जिल्द २, १० २५३) यथा--'तिलित-दण्डानाम्'। इसका अर्थ है 'ऐसे पुरुष जो बन्दीगृह में बन्द है।' मेधातिथि एवं कुल्लूक ने इसका अर्थ क्रम से यों दिया है--'शास्त्रीय नियमों के अनुसार निर्णीत' तथा 'असफल पक्ष से दण्ड लेने के रूप में।' कात्यायन ने कुछ और ही कहा है (४६५)-'जब कोई पक्ष सभ्यों द्वारा बिना साक्षियों पर विचार किये मत्य या असत्य रूप में निर्णीत होता है तो उसे तीरित कहा जाता है और जो साक्षियों के आधार पर निर्णीत होता है उसे अनुशिष्ट कहा जाताहै।' वैजयन्ती कोश ने कात्यायन का अनुसरण किया है--'जब सभ्यों द्वारा कोई पक्ष हरा दिया जाता है तो वह तीरित कहा जाता है, और जब साक्षियों के बल पर असत्य एवं सत्य का निर्धारण होता है तो वह अनुशिष्ट कहलाता है।' (भूमिकाण्ड, वैश्याध्याय, श्लोक ११-१२) । नारद (२०६५) ने इन शब्दों का प्रयोग किया है जिन्हें मिताक्षरा (याज्ञ० २।३०६) ने क्रम से यों समझाया है-'जब विवाद, उपलब्ध प्रमाण एवं साक्षियों से निर्णीत होता है किन्तु दण्ड उगाहने का निर्णय नहीं हुआ रहता तो यह तोरित है, और जब असफल पक्ष से दण्ड उगाह लेने तक का निर्णय होता है तो वह अनुशिष्ट कहलाता है।' अन्य व्याख्याओं के लिए देखिए अपरार्क (पृ०८६६) एवं व्यवहारप्रकाश (पृ०६०)। ४. कुलादिभिनिर्णये जयपत्राभावाग्निर्णयपत्र तत्र कार्य परत्तपत्रमिति यावत् । व्यवहारनिर्णय, पृ० ५५ । ५. तीरितं समापितं निर्णयपर्यन्तं प्रापितमिति यावत् ।...अनुशिष्टं अथि-प्रत्यार्थिनी प्रति कथितं जयपत्रे चारोपितम् । व्यवहारप्रकाश (१०६०); तीरितं समाप्तम् अनुशिष्टं साक्षिभिरुक्तम् । दीपकलिका (याज्ञ० २।३०६); तीरितं समापितं निर्णीतमिति यावत् । अनुशिष्टं साक्षिभिरुक्तम् । मदनरत्न; सदेवासत्कृतं सम्यस्तीरितं साक्षिणा तु चेत् । अनुशिष्टमयो लेखो लेख्यं दिव्यं तु दैविकम् ॥ वैजयन्तीकोश । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002790
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size12 MB
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