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________________ ७५८ धर्मशास्त्र का इतिहास आदि होने चाहिए । वसिष्ठ (१६।१०) ने पूर्व निर्णयों का हवाला (आगमाद् दृष्टाच्च) भी देने को कहा है । मिताक्षरा (याज्ञ० २।६१) ने एक स्मृति का हवाला देकर कहा है कि उपस्थित (न्यायाधीश के अतिरिक्त) स्मृतिज्ञ लोगों को भी निर्णय पर हस्ताक्षर कर देना चाहिए, जिससे यह सिद्ध हो जाय कि यह निर्णय उन्हें भी मान्य है। किन्तु ऐसा करना आवश्यक नहीं है, जैसा कि विवादचन्द्र (पृ० १४६) ने कहा है । कात्यायन ने (२५६) पश्चात्कार शब्द का प्रयोग उस निर्णय के लिए किया है जिसमें उपर्युक्त बातें पायी जाय और जो पूर्ण विवाद के उपरान्त दिया गया हो। उन्होंने जयपत्र को केवल उस लेख्य (न्यायाधीश द्वारा दिये गये) के लिए प्रयुक्त किया है जो उस वादी को दिया जाता है जो होनवादी (जो अपने विवाद के विचार में परिवर्तन कर देता है) कहलाता है अथवा जब विवाद का पूर्ण व्यवहार-विचार (जांच) नहीं हुआ हो; ऐसे लेख्य में केवल घटना मात्र का वर्णन रहता है । कौटिल्य (३।१६) ने पश्चातकार शब्द का प्रयोग दूसरे अर्थ में किया है। हत्या के अपराध में व्यक्ति यदि अभियुक्त होने पर उसी दिन उत्तर नहीं देता तो वह अपराधी सिद्ध हो जाता है, यही पश्चातकार है। मिताक्षरा(याज्ञ० २१६१) ने कात्यायन से भिन्न मत दिया है। उसमें आया है कि जयपत्र में आवेदन, उत्तर, साक्षी एवं निर्णय का निष्कर्ष मात्र होता है और जब वादी अपने आवेदन के विचार में कोई परिवर्तन करता है और उसका बचाव उपस्थित करता है या जो कुछ कहना है उसे नहीं कहता या लेख्य-प्रमाण नहीं उपस्थित कर पाता तो इस प्रकार के लेख्य को हीनपत्रक कहा जाता है। खेद की बात है कि आज तक कोई लिखित (संस्कृत में) प्राचीन जयपत्र नहीं प्राप्त हो सका है। प्राचीन जावा की भाषा में लिखित एक जयपत्र का निष्कर्ष डा० जॉली ने प्रकट किया था (कलकत्ता वीकली नोट्स, २५) जो जावा द्वीप में ताम्रपन्न पर लिखित प्राप्त हुआ था और जिसे डा. ब्रण्डीज ने डच पत्र में प्रकाशित किया था। उस जयपत्र (सन् ६२८ ई०) में एक सुवर्ण के विवाद का उल्लेख है और यह लिखा हुआ है कि व्यवहार-विचार (जांच) में अनुपस्थित रहने के कारण वादी हार गयाथा। उस जयपन के अन्त में चार साक्षियों के हस्ताक्षर हैं और उसे जयपत्र की संज्ञा दी गयी है । इसके विषय में देखिए जे० बी० ओ० आर० एस० (जिल्द ७ पृष्ठ ११७)। डा० काशीप्रसाद जायसवाल ने 'कलकत्ता वीकली नोट्स' (२४) में अनुवाद एवं अपने निरूपण से मिथिला के हिन्दू न्यायालय द्वारा उपस्थापित एक जयपत्र (सन् १७६४ ई०)का उल्लेख किया है (जे०बी०ओ०आर०एस०, जिल्द ६, पृ० २४६-२५८), जो स्मृतियों एवं निबन्धों में उल्लिखित विधि का सम्पूर्ण रूप खड़ा करता है और बहुत ही सुसंस्कृत, पारिभाषिक एवं नियमनिष्ठ ऋजु भाषा में लिखा हुआ है। यह एक दासी से सम्बन्धित स्वामित्व के विवाद के विषय में है । वादी ने सर्वप्रथम उपस्थिति-सम्बन्धी दोष प्रदर्शित किया (अर्थात् वह समय से न्यायालय में उपस्थित नहीं हो सका); जयपन में इसका उल्लेख हुआ है और उसमें यह भी लिखा है कि अभियोग व्यवहार या विचार पुनः खोला गया (अर्थात् मुकदमा । प्रतिवादी ने विरोध खड़ा किया कि केवल एक साक्षी से विवाद का निर्णय देना न्यायोचित नहीं है। यह विरोध स्वीकृत हो गया। इसके उपरान्त वादी ने दिव्य-ग्रहण की आज्ञा मांगी, किन्तु यह अनसुनी कर दी गयी क्योंकि मानुष प्रमाण सम्भव था । अन्त में वादी अपना मुकदमा हार गया । जयपत्र पर सकल मिश्र नामक न्यायाधीश का हस्ताक्षर है, वह अन्य सभ्यों को, जिन्हें धर्माध्यक्ष एवं पण्डित की संज्ञा दी गयी है और जिनमें सात ने लेख्य के शीर्षभाग में अपनी सम्मति व्यक्त की है, सम्बोधित किया गया है । अठारहवीं एवं उन्नीसवी शताब्दी के नौ संस्कृत जयपत्रों के लिए देखिए जर्नल आव दी बिहार एण्ड उड़ीसा रिसर्च सोसायटी (जिल्द २८, सन् १६४२)। मिताक्षरा (याज्ञ० २।६१) एवं व्यवहारमातृका (पृ० ३०६) के मत से जयपत्र विशेषतः इसलिए दिया जाता है कि वह विवाद पुनः न खड़ा हो सके, हीनपत्रक इसलिए दिया जाता है कि उस पक्ष को आगे चलकर अर्थ-दण्ड Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002790
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size12 MB
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