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________________ अध्याय १५ सिद्धि (निर्णय) व्यवहार-विधि का अन्तिम (चौथा)स्तर सिद्धि (याज्ञ०२।८) अथवा निर्णय है। यदि प्रत्याकलित को व्यवहार का पाद कहा जाय (सर्वसम्मति से चार ही पाद होते हैं) तो निर्णय (साध्यसिद्धि) किसी विवाद (ला-सूट, मुकदमे) का पाद नहीं है, प्रत्युत उसका फल है (व्यवहारप्रकाश पृ० ८६)। प्रमाण की उपस्थिति के उपरान्त राजा (या मुख्य न्यायाधीश ) सभ्यों की सहायता से वादी की जय या पराजय का निर्णय करता है। नारद (२०४२) का कहना है कि सभ्यों को चाहिए कि वे दण्ड-निर्णय करते समय दोनों पक्षों को न्यायालय से बाहर चले जाने को कह दें। व्यास एवं शुक्र (४।५।२७१) के मत से निर्णय के आधार के आठ स्रोत हैं (शुक्र के मत से केवल छः स्रोत हैं)-तीन प्रमाण (भोग, लेखप्रमाण एवं साक्षी), तकसिद्ध अनुमान (हेतु), देश परम्पराएँ (सदाचार), शपथ (शपथ एवं दिव्य), राजा का अनुशासन एवं वादियों की स्वीकारोक्ति (वादि से प्रतिपत्ति)। पितामह का कथन है कि जिस विवाद में साक्षी, भोग, लेखप्रमाण न हों और दिव्य से निर्णय न हो सके, उसमें राजा की आज्ञा ही निर्णय का रूप धारण करती है, क्योंकि वह सबका स्वामी है।३ नारद (२१४१ एवं ४३) में आया है कि चाहे कोई पक्ष स्वीकारोक्ति के कारण या अपने कर्तव्य या आचार (व्यवहार) के कारण (यथा--झूठी गवाही या कूट लेख्य प्रमाण के कारण) हार गया हो, या चाहे पूर्ण व्यवहार-विचार (जाँच ट्रायल) एवं प्रमाण के उपरान्त हार गया हो; सभ्यों (न्यायाधीशों) के लिए यह उचित है कि वे इसे घोषित कर दें और उपयुक्त ढंग से लिखकर सफल पक्ष को जयपत्र दे दें। नारद के कई पद्यों(अपरार्क पृ० ६८४),बृहस्पति, कात्यायन (२५६-२६५), वृद्ध वसिष्ठ (मिताक्षरा, याज्ञ० २१६१, अपराक पृ० ६८४) एवं व्यास (स्मृतिचन्द्रिका २, पृ० ५७) ने निर्णय के विषयों का विवरण दिया है । उसमें पूर्वोत्तर क्रियापाद, प्रमाण, परीक्षा, साक्षी, साक्षियों पर विचार-विमर्श, तर्क-युक्ति, उपयुक्त स्मृति-वचन,सभ्यों की सम्मति, छूट, न्यायाधीश का हस्ताक्षर एवं राजमुद्रा का अंकन १. उक्तप्रकाररूपेण स्वमतस्थापिता किया। राजा परीक्ष्य सभ्यश्च स्थाप्यौ जयपराजयौ। सग्रहकार (स्मृतिचन्द्रिका २, पृ० १२०, पराशरमाधबीय ३, पृ० १६६)। २. प्रमाणहेतुचरितः शपथेन नृपाज्ञया । वादिसंप्रतिपत्त्या वा निर्णयोऽष्टविधः स्मृतः ॥ व्यास (व्यवहारनिर्णय प.० १३८, व्यवहारप्रकाश पृ०८६, शुक्रनीति (४।५।२७१)। शुक्र० में “षड्विधः स्मृतः"ऐसा आया है,स्पष्टतया शक्र ने प्रमाण को अकेला माना है। ३. लेख्यं यत्र न विद्यत न भुक्तिनं च साक्षिणः । न च दिव्यावतारोस्ति प्रमाणं तत्र पार्थिवः ॥ निश्चेतुं येन शक्याः स्युर्वादाः सन्दिग्धरूपिणः । तेषां नृपः प्रमाणं स्यात्स सर्वस्यप्रभुर्यतः॥ पितामह (स्मृतिचन्द्रिका २, पृ० २६; पराशरमाधवीय ३, पृ. ६३; व्यवहारसार पृ० ४३; मदनरत्न)। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002790
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size12 MB
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