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धर्मशास्त्र का इतिहास २४)। और देखिए एपिगैफिया कर्नाटिका (जिल्द ३, माण्ड्या तालुका अभिलेख सं० ७६, पृ० ४७), वही, जिल्द ४, पृ० २७ (येलण्डर जागीर अभिलेख सं० २, पृ० २७ सन् १५८० ई० के लगभग), सन् १६३१ की इण्डियन ऐण्टीक्वेरी (जिल्द ६०, पृ० १७६) एवं रिपोर्ट आव साउथ इण्डियन एपिफी (सन् १६०७, पंरा २७)।
- मराठा राजाओं के समय में दिव्यों की प्रथा थी। उदाहरणार्थ देखिए, पेशवा की दिनचर्या (पेशवाज डायरीज, जिल्द २, पृ० १५०, सन् १७६४-६५), श्री पी० वी० मावजी एवं श्री डी० बी० परसनिस द्वारा सम्पादित 'वतनपत्रे', 'निवाडपत्रे' आदि (पृ० ४६-५६) । अन्तिम पुस्तक (पृ० ३६-४१) में मुसलमान विवादियों द्वारा किये गये दिव्यों का वर्णन है । मुसलमानों ने १५ दिनों तक दीप जलाकर अपनी मसजिद में दिव्य किये थे (सन् १७४२ ई०) । बहुत-से अन्य वतनपनों में भी दिव्यों का वर्णन है।
डा. दिनेशचन्द्र सरकार के एक लेख"दी सकसेसर्स आव दी शातवाहनस्" ( अपेंडिक्स,पृ०३५४-३७६,कलकत्ता १६३६) में दिव्यों का वर्णन है। उन्होंने (एशियाटिक रिसर्चेस, जिल्द १) का उद्धरण देते हुए लिखा है कि अली इब्राहीज खाँ नामक मजिस्ट्रेट ने बनारस में किये गये फाल दिव्य (सन् १७८३ ई०) से घोषित दो विवादों की रिपोर्ट गर्वनर जनरल वारेन हेस्टिग्स को भेजी थी।१२ श्री भास्कर वामन भट ने 'तृतीय-सम्मेलन-वृत्त' (पृ० १८-२६) एवं 'चतुर्थ-सम्मेलन-वृत्त' (पृ० १००-१५४) में, जो पूना की प्रसिद्ध 'भारत-इतिहास-संशोधक-मण्डल' नामक संस्था से निकले हैं, दो विचारोत्तेजक एवं विद्वत्तापूर्ण लेख दिये हैं, जिनमें (मराठी भाषा में) मराठों के समय की व्यवहारशासन-विधि में दिव्यों के स्थान एवं प्रयोग का वर्णन है।
१२. यह आश्चर्यजनक बात है कि डा० सरकार ने बृहस्पति को "दिव्यतत्व' का लेखक माना है (सकसेसर्स आव शातवाहनस्, अपेडिक्स, पृ० ३६०)। रघुनन्दन का 'दिव्यतत्व' अति प्रसिद्ध है : कहीं भी वृहस्पतिलिखित दिव्यतत्व का उल्लेख नहीं मिलता।
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