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________________ द्विव्यों का प्रचलन ७५५ ऐसा कहकर शोध्य मिट्टी के बरतन से एक पिण्ड निकालता है। यदि धर्म का पिण्ड निकल जाता है तो वह निर्दोष सिद्ध हो जाता है। यह दिव्य भाग्य-परीक्षा के समान है। अधिकतर सभी प्राचीन देशों में दिव्य का कोई-न-कोई रूप प्रचलित था । इंग्लैंड में तप्त लोह-खण्ड को पकड़ना तथा खोलते हुए पानी में हाथ डालना प्रचलित था। पानी में डूबे रहना निर्दोषिता का तथा ऊपर तैरते रहना अपराध का चिह्न माना जाता था। स्टीफेंस (हिस्ट्री आव क्रिमिनल ला आव इंग्लैंड, जिल्द १, पृ०७३) ने लिखा है कि जल का दिव्य सम्मानपूर्वक आत्महत्या समझा जाता था। नार्थपटन के असाइज (११७६ ई.) ने जल-दिव्य को हत्या, डकैती, चोरी, वंचकता एवं आग लगाने के अपराध में लागू करने को कहा है। किन्तु सन् १२१५ ई० में दिव्य अवैधानिक करार दे दिये गये (वही, जिल्द १, पृ० ३००)। भारत में दिव्यों की प्रथा अठारहवीं शताब्दी तथा बहुत कम अंशों में' आगे तक प्रचलित थी, जैसा कि शिलालेखों, अभिलेखों तथा अन्य प्रमाणों से प्रकट होता है।११ देखिए किटूर स्तम्भ अभिलेख (जे० बी० बी० आर० ए० एस०, जिल्द ६, पृ० ३०७-३०६), सिलिमपुर प्रस्तर-खण्ड-अभिलेख (एपिग्रंफिया इण्डिका, जिल्द १३, पृ० २८२, पृ० २६१-२६२) आदि । सातवीं शताब्दी में विष्णुकुण्डिराज माधववर्मा ने बहुत-से दिव्य कराये थे, यथा “अवसित-विविध दिव्यः" (जर्नल आव आन्ध्र हिस्टारिकल रिसर्च सोसायटी,जिल्द ६,पृ० १७, २०, ११. बील के बुद्धिस्ट रेकर्डस् आव दो वेस्टर्न वर्ल्ड' (जिल्द १, पृ० ८४)एवं वाटर्स के 'युवान् च्वांग की यात्रा' (जिल्द १, पृ० १७२) नामक ग्रन्थों में चार प्रकार के दिव्य प्रचलित कहे गये हैं, तथा--जल, अन्नि, तुला एवं विष। जल के दिव्य में अपराधी को पत्थर के बरतन के साथ एक गठरी में रखकर जल में फेंक दिया जाता था। यदि व्यक्ति डूब जाता और पत्थर तैरता रहता तो वह अपराधी कहा जाता था, किन्तु यदि व्यक्ति तैरता रहता और पत्थर डूब जाता तो वह निर्दोष सिद्ध हो जाता था। अग्नि का दिव्य इस प्रकार का था; लोग लोहे की चद्दर को गर्म करते थे, अभियुक्त को उस पर बैठाते थे और पुनः उस पर उसका पाँव रखाते थे, फिर उस पर उसकी हथेलियां रखाते थे; इतना ही नहीं, अभियुक्त को उस पर अपनी जिह्वा भी रखनी पड़ती थी। यदि वह न जलता था तो वह निर्दोष माना जाता था, यदि उसके शरीर पर जलने के दाग आ जाते थे तो वह अपराधी सिद्ध होता था। तुला के दिव्य में एक व्यक्ति और उसी के बराबर पत्थर तराजू में रखे जाते । यदि अभियुक्त निरपराधी है तो पत्थर उठ जाता था, यदि वह अपराधी है तो व्यक्ति उठ जाता था और पत्थर झुक जाता था। विष के दिव्य में एक भेड़ की दाहिनी जाँघ में छेद कर दिया जाता था जिसमें सभी प्रकार के विषों के साथ अभियुक्त के भोजन का एक अंश भर दिया जाता था। यदि अभियुक्त दोषी है तो विष प्रभाव करता था और भेड़ मर जाती थी; यदि नहीं तो विष का कोई प्रभाव नहीं होता था और पशुजी जाता था। इस विवरण से प्रकट होता है कि इस प्रकार के दिव्यों की बहुत-सी बातें स्मृतियों एवं निबन्धों में लिखित बातों से मेल नहीं खातीं। विष दिव्य के सम्बन्ध में दी गयी बोल महोदय की बातें स्मृतियों में बिल्कुल नहीं पायो जातीं । अलबेरुनी (सचौ द्वारा अनुदित, जिल्द २, पृ० १५६-१६०)ने सम्भवतः विष दिव्य को निम्न शब्दों में व्यक्त किया है ; “अभियुक्त को ब्राह्मण नामक विष पीने को बुलाया जाता है ।" सम्भवतः यहां पर अलबेरुनी ने ब्रह्मा की सन्तान विष की ओर संकेत किया है, जैसा कि याज्ञ० (२।११०)एवं नारद (४।३२५) में कहा गया है । जल के दिव्य में अभियुक्त को गहरी और तीक्ष्ण धार वाली नदी में या गहरे कुएं में फेंक दिया जाता था, यदि वह नहीं डूबता था तो उसे निर्दोष समझा जाता था। उसने कोष एवं तुला दिव्यों का वर्णन यथातथ्य किया है । अन्तर केवल इतना ही है कि उसके कथन के अनुसार यदि सत्य कहा गया है तो वह (अभियुक्त) पहले की अपेक्षा तुला में अधिक भारी हो जाता था। उसने तप्त-माष (खौलते हुए घृत से सोना-खण्ड निकालना) एवं तप्त-लोह का तथातथ्य वर्णन किया है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002790
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size12 MB
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