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धर्मशास्त्र का इतिहास
तन्दुल का दिव्य
यह दिव्य चोरी, ऋण या अन्य धन-सम्बन्धी विवादों में लागू होता है। एक दिन पूर्व धान से चावल निकाले जाते हैं। उसी दिन न्यायाधीश सभी कृत्य सम्पादित कर लेता है । मिट्टी के बरतन में चावल रखकर धूप में सुखाये जाते हैं। सूर्य के स्नान का जल उन पर छोड़ा जाता है। चावल जल के साथ रात भर रखे रहते हैं। दूसरे दिन प्रातःकाल शोध्य चावलों को तीन बार निगलता है। उसे पीपल या भूर्ज (भोज वृक्ष) की पत्ती पर थूकना पड़ता है। यदि उसके थक में रक्त पाया जाय तो उसे अपराधी घोषित किया जाता है।
तप्त माष का दिव्य
तप्त माष का अर्थ है गर्म स्वर्ण-खण्ड । सोलह अंगुल व्यास वाले तथा चार अंगुल गहरे ताम्र, लोहे या मिट्टी के बरतन में न्यायाधीश बीस पल घृत या तेल डलवा कर उसे खौलाता है। इसके उपरान्त उस बरतन में एक मासा तोल का स्वर्ण-खण्ड डलवाता है। णोध्य को अंगठे एवं पास वाली दो अंगलियों (तर्जनी एवं मध्यमा) से उसे निकालना होता है। यदि उसकी अंगुलियों में कम्पन न हो और वे जलें नही तो शोध्य निर्दोष सिद्ध हो जाता है । एक दूसरी विधि भी है। किसी सोने, चाँदी, ताम्र, लोहे या मिट्टी के बर्तन में गाय का घृत इतना खौलाया जाता है कि यदि उसमें कोई हरी पत्ती डाली जाय तो वह पकती हई कड़कड़ाहट का स्वर उत्पन्न कर दे। उस घत में सोने, चाँदी, ताम्र या लोहे की अंगूठी (मोहर) एक बार धोकर डाल दी जाती है । न्यायाधीश कहता है-- "हे घृत, तुम यज्ञों में पवित्रतम वस्तु हो, तुम अमृत हो, यदि शोध्य पापी है तो उसे जला दो, यदि वह निरपराधी है तो हिम के समान शीतल हो जाओ।" तब शोध्य खौलते हुए घृत में से अंगूठी निकालता है । यदि तर्जनी पर जलने का चिह्न न दिखाई पड़े तो शोध्य निर्दोष सिद्ध हो जाता है।
फाल का दिव्य
___ इसका विवरण बृहस्पति, स्मृतिचन्द्रिका (२,१० ११६), व्यवहारप्रकाश (पृ० २१८) आदि में मिलता है।
ह पलों वाला, आठ अंगल लम्बा एवं चार अंगल चौड़ा लोहे का फाल (हल का फाल) तपाकर लाल किया जाता है जिसे शोध्य को एक बार अपनी जीभ से चाटना पड़ता है। यदि वह नहीं जलता तो वह निर्दोष सिद्ध हो जाता है। व्यवहारतत्व (पृ० ६०८) ने लिखा है कि मैथिल लेखकों के अनुसार यह दिव्य पशु-चोरों के लिए प्रचलित था । छान्दोग्योपनिषद् में इसे फाल-दिव्य कहा गया है।
धर्म का दिव्य
इसमें धर्म की मूर्तियाँ या चित्र काम में लाये जाते हैं । यह दिव्य उन लोगों के लिए है जो शारीरिक चोट उत्पन्न कर देते हैं या जो धन-सम्बन्धी विवादी हैं या जो पापमोचन के लिए प्रायश्चित्त करना चाहते हैं । धर्म की एक रजतमूर्ति तथा अधर्म की सीसे या लोहे की मूर्ति बनवायी जाती है या न्यायाधीश स्वयं भूर्ज (भोज) पत्न वा वस्त्रखण्ड पर धर्म एवं अधर्म के चित्र क्रमशः श्वेत एवं कृष्ण वर्ण के बनाता है। वह उन पर पंचगव्य छिड़ककर क्रमशः श्वेत एवं कृष्ण पुष्पों से उनकी पूजा करता है। ये मूर्तियां या चित्र मिट्टी या गोबर के दो पिण्डों पर रखे जाते है । देवों की मूर्तियों एवं ब्राह्मणों की उपस्थिति में दोनों पिण्ड गोबर से लिपे-पुते स्थान पर एक नये मिट्टी के बरतन में रखे जाते हैं। इसके उपरान्त न्यायाधीश धर्म के आह्वान से लेकर अपराध लिखकर शोध्य के सिर पर रखे जाने तक के सारे कृत्य सम्पादित करता है। शोध्य कहता है--"यदि मैं निरपराधी हैं तो धर्म की मूर्ति या चित्र मेरे हाथों में आ जाय।"
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