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दिव्य-विधियाँ
बार ताली बजाता है। तीसरी ताली के साथ ही शोध्य जल में खड़े व्यक्ति की जाँघ पकड़ कर डुबकी मारता है और तोरण के पास खडा व्यक्ति तेजी से दूसरे बाण वाले व्यक्ति के पास दौड जाता है। बाण वाला व्यक्ति तोरण के पास दौड़कर आता है और यदि वह शोध्य को नहीं देखता या केवल उसके सिर का ऊपरी भाग मात्र देखता है तो शोध्य निर्दोष सिद्ध हो जाता है। यदि वह शोध्य का कान या नाक देख लेता है या उसे अन्यन बहते हुए देखता है तो शोध्य अपराधी सिद्ध हो जाता है।
विष का दिव्य धूप, दीप आदि से महेश्वर की मूर्ति के समक्ष पूजा-अर्चना के उपरान्त तथा देवों को मूति एवं ब्राह्मणों के समक्ष विष रस्यकर विष-दिव्य सम्पादित किया जाता है। विष का चुनाव शाङ्ग (शृंग पौधे से निकाले हुए) या वत्सनाम (वत्स नामक पौधे से निकाले हुए)या हैमवत से किया जाता है (विष्णुधर्मसूत्र १३।३, नारद ४।३२२ आदि)। वर्षा ऋतु में ६ यव, ग्रीष्म में ५ यव, हेमन्त ( एवं शिशिर) में ७ या ८ यव, शरद में लगभग ६ यव के बराबर विष होना चाहिए। रात्रि के अन्तिम प्रहर में विष देना चाहिए किन्तु दोपहर, अपराह्न या सन्ध्याकाल में कभी नहीं। विष में ३० गुना घी मिला दिया जाता है। ब्राह्मण को छोड़कर किसी को भी यह दिया जा सकता है। मन्त्र आदि से देवों का आह्वान किया जाता है । विष-पान के उपरान्त शोध्य छाया में बिना खाये-पीये सुरक्षा में रहता है। यदि विष का प्रभाव उस पर नहीं होता तो वह निर्दोष सिद्ध हो जाता है। यदि विष अधिक हो और शोध्य ५०० तालियां बजाने तक बिना प्रभाव के रह जाता है तो उसे निरपराधी मानकर उसकी दवा की जाती है (मिताक्षरा, याज्ञ० २।१११) । शोध्य को छल से बचाने के लिए (सम्भवतः वह पूर्व उपचार-स्वरूप कुछ खा-पी सकता है) उसे पितामह के मत से, तीन या पांच रातियों तक राज-पुरुषों की अधीक्षकता में रखना चाहिए और उसकी जाँच कर लेनी चाहिए, क्योंकि विष से बचने के लिए गप्त रूप से वह दवाओं, मन्त्रों अथवा रत्न आदि का उपयोग कर सकता है।
कोष का दिव्य शोध्य को उग्र देवताओं (यथा रुद्र, दुर्गा, आदित्य)की चन्दन, पुष्प आदि से पूजा करनी पड़ती है और उनकी मतियों को स्नान कराना होता है। न्यायाधीश शोध्य से 'सत्येन माभिरक्ष' याज्ञ० २०१०) मन्त्र जल का आह्वान कराता है और उस जल को तीन बार हाथ से उसे पिलाता है। पितामह ने कुछ विशिष्ट नियम दिये हैं। वह जल या तो शोध्य के आराध्यदेव की मूर्ति का स्नान-जल हो सकता है, या यदि शोध्य सभी देवों को समान मानता है तो सूर्य की मूर्ति का स्नान-जल हो सकता है । दुर्गा के शूल को स्नान कराया जाता है, सूर्य के मण्डल तथा अन्य देवों के अस्त्रों को स्नान कराया जाता है। दुर्गा का स्नान-जल चोरों को तथा आयुधजीवियों को दिव्य के रूप में दिया जाता है। किन्तु सूर्य का स्नान-जल ब्राह्मणों को नहीं दिया जाता। अन्य दिव्यों का फल शीघ्र ही घोषित होता है किन्तु कोष दिव्य के फल के लिए प्रतीक्षा करनी पड़ती है और यह अवधि विवाद की सम्पत्ति तथा अपराध की गरुता पर निर्भर रहती है। याज्ञ ० (२।११३), विष्णुधर्मसूत्र (१४।४-५) एवं नारद (४।६३०) के मत से कोष दिव्य के चौदह दिनों के उपरान्त यदि शोध्य पर राजा की व्यवस्था या देवों के क्रोध के कारण कोई विपत्ति नहीं घहराती, या उसका पुत्र या स्त्री नहीं मरती, वह गम्भीर रूप से बीमार नहीं पड़ता, उसका धन नष्ट नहीं होता, तो वह निर्दोष सिद्ध हो जाता है । थोड़ी बहुत हानि से कुछ नहीं होता, क्योंकि इस संसार में यह अपरिहार्य है। बीमारी का स्वरूप महामारी नहीं हो सकती, केवल उस पर गिरी आपत्ति, रोग आदि पर ही विचार किया जाता है। पवित्र जल का पान (कोष-पान) केवल निर्दोषिता सिद्ध करने के लिए ही नहीं किया जाता, यह अन्य लोगों के समक्ष अपनी सचाई एवं सद्विचार प्रकट करने के लिए भी किया जाता है (राजतरंगिणी, श्लोक ३२६)।
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