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________________ ७५२ धर्मशास्त्र का इतिहास जाते हैं । इसके उपरान्त मन्त्रों के साथ वह पुनःबैठाया जाता है । एक ज्योतिषी पाँच पलों की गणना करता है। उसकी दूसरी बार की तोल ले ली जाती है । यदि वह दूसरी बार पहली बार की तुलना में कम ठहरता है तो उसे निरपराधी घोषित कर दिया जाता है। किन्तु यदि वह ज्यों का त्यों अथवा कुछ भारी ठहरता है तो अपराधी माना जाता है। बहस्पति का कथन है कि बराबर तोल आने पर पुनः तोल की जाती है। अग्नि का दिव्य अग्नि, वरुण, वायु, यम, इन्द्र, कुबर, सोम, सविता एवं विश्वेदेवों के नाम पर गोबर के ६वृत्त पश्चिस से पूर्व बनाये जाते हैं । प्रत्येक वृत्त १६ अंगुल व्यास का होता है और वे एक-दूसरे से १६ अंगुल दूरी पर रहते हैं । प्रत्येक वृत्त में कुश रख दिये जाते हैं और प्रत्येक में शोध्य को अपना पाँव रखना पड़ता है। अग्नि में १०८ बार घृत की आहुतियां दी जाती हैं। एक लोहार जाति का व्यक्ति तोल में ५० पल दुर्बल व्यक्ति के लिए केवल १६ पल) तथा लम्बाई में आठ अंगुल का लोह-खण्ड अग्नि में तप्त करता है और इतना तप्त करता है कि उससे चिनगारियाँ निकलने लगती हैं। इसके उपरान्त सभी प्रकार के कृत्य, जिन्हें संक्षेप में तुला के सम्बन्ध में बताया गया है, सम्पादित होते हैं और शोध्य के सिर पर पत्र लिखकर रख दिया जाता है । मन्त्रों के साथ अग्नि का आह्वान किया जाता है। शोध्य पूर्वाभिमुख प्रथम वृत्त में खड़ा होता है । शोध्य के दोनों हाथों पर लाल चिन्ह बना दिये जाते हैं और उन पर चावल रगड़ दिये जाते हैं। न्यायाधीश उसके हाथों पर अश्वत्थ (पीपल) की सात पत्तियाँ रख देता है और उनके साथ चावल और दही रखा जाता है। सबको सूत से बाँध दिया जाता है। न्यायाधीश चिमटे से तप्त लोहे को शोध्य के पत्तियों से बँधे हाथों पर रख देता है । शोध्य धीरे-धीरे आठ वृत्तों तक चलता है और नवें वृत्त में दोनों हाथों वाले तप्त लोहे को फेंक देता है। इसके उपरान्त न्यायाधीश शोध्य के हाथों को पुनः चावलों से रगड़ता है। यदि शोध्य ऐसा करने देने में कोई हिचकिचाहट नहीं प्रकट करता और उसके हाथों पर दिन के अन्त तक कोई घाव नहीं दीखता तो वह निरपराधी घोषित हो जाता है। कात्यायन (४४१) एवं याज्ञ० (२।१०७) ने व्यवस्था दी है कि यदि लोहखण्ड आठवें वृत्त तक पहुंचने के पूर्व ही गिर जाता है या कोई सन्देह उत्पन्न हो जाता है ( उसका हाथ जला है कि नहीं) यह वह लड़खड़ा पड़ता है या हाथ में कहीं और जल जाता है तो शोध्य को पुनः यह दिव्य करना पड़ता है। जल का दिव्य जल के दिव्य का वर्णन स्मृतियों एवं निबन्धों में जटिल है । स्मृतिचन्द्रिका ने (२, पृ० ११६) जल एवं विष के दिव्यों को अपने काल में अप्रचलित कहकर छोड़ दिया है। किसी जलाशय के पास पहुंचकर न्यायाधीश उसके किनारे शोध्य के कान तक ऊँचा एक तोरण खड़ा करता है। वह वरुण (जल-देवता), मझोले आकार के धनुष एवं तीन बाणों की (जिनकी नोंके लोहे की नहीं प्रत्युत बाँस की होती हैं) अर्चना चन्दन, धूप, दीप एवं पुष्प से करता है । तोरण से १५० हाथ की दूरी पर एक लक्ष्य निर्धारित कर दिया जाता है। किसी पवित्र वृक्ष का एक स्तम्भ लेकर तीन उच्च वर्णों का कोई व्यक्ति, जो शोध्य का बैरी नहीं होता, पूर्वाभिमुख होकर नाभि तक जल में खड़ा हो जाता है । तब न्यायाधीश शोध्य को जल में खड़ा करता है, और धर्म से लेकर दुर्गा तक के देवताओं की अभ्यर्थना करता है एवं अपराध लिखित कर शोध्य के सिर पर रखता है । इसके उपरान्त एक क्षत्रिय या ब्राह्मण (आयुधजीवी), जो पवित्न हृदय का होता है और उपवास किये रहता है, तोरण से लक्ष्य तक तीन बाण फेंकता है। शोध्य वरुण की उपासना करता है और कहता है--“हे वरुण, सत्य के द्वारा मेरी रक्षा करो।" तब तक फुर्तीला युवक गिरे हुए दूसरे बाण के स्थान पर दौड़ जाता है और बाण को लेकर खड़ा हो जाता है । तोरण के पास दूसरा फुर्तीला व्यक्ति खड़ा हो जाता है। तव न्यायाधीश तीन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002790
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size12 MB
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