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दिव्य विधियाँ
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लिए शीत ऋतु, अग्नि के लिए ग्रीष्म, विष के लिए वर्षा एवं तुला के लिए तीक्ष्ण वायु को वर्जित माना है। मिताक्षरा (याज्ञ० २२६७) एवं पराशरमाधवीय ( ३, पृ० १६२ ) ने पितामह का उद्धरण देते हुए लिखा है कि चैत्र, वैशाख, मार्गशीर्ष सभी दिव्यों के लिए उपयुक्त हैं तथा कोष एवं तुला सभी मासों में किये जा सकते हैं ।
स्थान के विषय में पितामह ने व्यवस्था दी है कि दिव्य ग्रहण राजा या राजा द्वारा नियुक्त न्यायाधीश द्वारा विद्वान् ब्राह्मणों एवं जनता ( या मन्त्रियों) के समक्ष होना चाहिए । कात्यायन ( ४३४-३५ एव ४३७) ने लिखा है--- गम्भीर पापों के मामलों में प्रसिद्ध मन्दिर में राजद्रोह में राजद्वार के पास, वर्णसंकरों (प्रतिलोम विवाह से उत्पन्न ) के लिए चौराहे पर और इनके अतिरिक्त अन्य मामलों में न्यायालयों में दिव्य प्रयोग किया जाना चाहिए। अनुपयुक्त स्थानों एवं कालों में तथा निर्जन में किये गये दिव्यों को अनुपयुक्त समझा जाता है अर्थात् वे मामलों के निर्णयों में कोई प्रभाव नहीं रखते । नारद ( ४।२६५ ) का कथन है कि तुला को न्यायालय में, राजद्वार पर, मन्दिर में या चौराहे पर रखना चाहिए।
दिव्य विधि, जैसा कि मिताक्षरा (याज्ञ० २२६७ एवं ६६ ), व्यवहारमयूख ( पृ० ५२-५५), व्यवहारप्रकाश ( १०१८३-१८८ ), व्यवहारनिर्णय ( पृ० १४८ - १५३ ) में उल्लिखित है, इस प्रकार है-- जिस प्रकार यज्ञों में अध्वर्यु होता है और उसी का निर्देशन सर्वोच्च एवं सर्वमान्य होता है, उसी प्रकार राजा का आदेश मुख्य न्यायाधीश के लिए दिव्य के विषय में होता है । मुख्य न्यायाधीश एवं दिव्य ग्रहण करने वाला अर्थात् शोध्य उपवास करता है। दोनों को प्रातःकाल स्नान करना होता है। शोध्य भीगे कपड़े पहने रहता है । न्यायाधीश देवों की अभ्यर्थना करता है और गाजे-बाजे के साथ पुष्प, चन्दन एवं धूप आदि देता है। वह हाथ जोड़कर पूर्वाभिमुख होकर दिव्य में उपस्थित होने के लिए धर्म की अभ्यर्थना करता है और इन्द्र, यम, वरुण, कुबेर को पूर्व से लेकर सभी दिशाओं में स्थापित करता है, अग्नि एवं अन्य दिक्पालों को मुख्य कोणों के किनारे रखता है । आठों दिशाओं में आठ देवों पर ( विभिन्न रंगों में; इन्द्र का पीत यम का काला...) ध्यान केन्द्रित करता है । वह आठ वसुओं को ( उनके नाम लेकर ) इन्द्र के दक्षिण, बारह आदित्यों को (उनके नाम लेकर ) इन्द्र एवं ईशान के बीच (अर्थात् पूर्वं एवं उत्तर-पूर्व के बीच ) स्थान देता है, ग्यारह रुद्रों को
for पूर्व, सात मातृकाओं को यम एवं निर्ऋति के बीच (अर्थात् दक्षिण एवं दक्षिण-पश्चिम के बीच ) स्थान देता है, गणेश को निर्ऋति के उत्तर सात मरुतों को वरुण के उत्तर स्थान देता है, दिव्यों के उत्तर दुर्गा का आह्वान करता है । इन सभी देवों का आह्वान उपर्युक्त वैदिक मन्त्रों के साथ होता है ( सभी मन्त्र व्यवहारमयूख में दिये गये हैं) । इसी प्रकार अन्य पूजा-अर्चन किये जाते हैं जिनका वर्णन यहाँ आवश्यक नहीं। एक पत्ते पर दिव्य का उद्देश्य लिखकर उसे शोध्य के सिर पर मन्त्र के साथ रख दिया जाता है जिसका अर्थ यह है-सूर्य, चन्द्र, अनिल (वायु), अनल (अग्नि) स्वर्ग, पृथिवी, जल, हृदय, यम, दिन, रात्रि, दोनों सन्ध्याएँ एवं धर्म मानव के कार्यों से परिचित हैं । इस विषय में देखिए आदिपर्व (७४|३०), व्यवहारनिर्णय ( पृ० १५३), मनु ( ८1८६) । अब हम नीचे कतिपय दिव्यों का संक्षिप्त वर्णन करेंगे ।
तुला या घट का दिव्य
वैदिक मन्त्रों के साथ कोई यज्ञिय वृक्ष, यथा-- खदिर या उदुम्बर, काट लिया जाता है । उसी वृक्ष के दो स्तम्भों पर अक्ष ( तुलाधार) लटका दिया जाता है । स्तम्भों को दो हाथ पृथिवी में गाड़ दिया जाता है और पृथिवी के ऊपर उनकी दूरी चार हाथ रहती है । ये खम्भे उत्तर-दक्षिण रहते हैं। एक हुक लगाकर अक्ष से तुला (तराजू) की डांड़ी लटका दी जाती है । दो पलड़े लटका दिये जाते हैं। एक में शोध्य को बिठला दिया जाता है। और उसे मिट्टी, ईंटों तथा प्रस्तर खण्डों से तोला जाता है । यह सब विधिपूर्वक किया जाता है। विधियों का वर्णन यहाँ नहीं दिया जा रहा है। एक बार तोलकर शोध्य को उतार दिया जाता है। उसको असत्य भाषण से उत्पन्न फल सुनाये
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