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. धर्मशास्त्र का इतिहास खाँसी से ग्रस्त हैं जल, झाड़-फूंक करने वालों, योगियों, पित्त-ग्रस्त लोगों के लिए विष तथा शराबियों,विषयासक्तों, जुआरियों एवं नास्तिकों के लिए कोश वजित माना गया है । यही नियम विष्णधर्मसूत्र (६।२५ एवं २६),नारद (४।२५५ एवं ३३२) में भी पाये जाते हैं। कात्यायन (४२७-४३०) के मत से इन लोगों को स्वयं दिव्य-ग्रहण वजित है-पिता, माता, ब्राह्मण, गुरु, नाबालिग, स्त्री एवं राजा के हन्ता; पंचमहापातकी; विशेषतः नास्तिक लोग, जो विशिष्ट सम्प्रदायचिन्ह रखते हों; महादुष्ट लोग; झाड़-फूंक करने वाले तथा यौगिक क्रियाएँ करने वाले विभिन्न वर्गों के संयोग से उत्पन्न सन्तान (वर्णसंकर) एवं बार-बार पाप करने वाले । इन लोगों के स्थान पर इनके द्वारा नियुक्त भले लोग या भले लोगों के तैयार न होने पर उनके सम्बन्धी दिव्य ले सकते हैं। शंख-लिखित ने भी मित्रों एवं सम्बन्धियों को प्रतिनिधिरूप में दिव्य के लिए ग्राह्य माना है। कात्यायन (४३३) का कथन है कि जब अस्पृश्यहीन जाति के लोग, दास, म्लेच्छ एवं प्रतिलोमप्रसूत लोग (अर्थात् ऐसे लोग जो प्रतिलोम विवाह से उत्पन्न हों, यथा शूद्र पुरुष तथा वैश्य नारी से या वैश्य पुरुष तथा क्षत्रिय नारी से उत्पन्न व्यक्ति) अपराधी हों, उनके अपराधों का निर्णय राजा द्वारा नहीं होना चाहिए। राजा को चाहिए कि वह प्रचलित दिव्यों की ओर निर्देश कर दे ।१० स्मृतिचन्द्रिका एवं पराशरमाधवीय का कथन है कि यह उसी मामले में लागू होता है जिसमें कि सम्बन्धी या अन्य व्यक्ति प्रतिनिधि रूप में प्रसिद्ध दिव्यों के लिए उपलब्ध नहीं होते । व्यवहारतत्त्व (पृ.० ५७६) का कहना है कि म्लेच्छों एवं अन्य लोगों के लिए घट-सर्प आदि दिव्य लागू होते हैं । घट-सर्प दिव्य में उस घड़े में अंगूठी या सिक्का डालना पड़ता था और उसे निकालना पड़ता था जिसमें सर्प रखा रहता था। यदि सर्प न काटे अथवा काट लेने पर व्यक्ति न मरे तो उसे निरपराधी घोषित कर दिया जाता था(देखिए टिप्पणी सं० १०)। याज्ञ० (२०६७) एवं नारद (४१२६८ एवं ३२०) का कथन है कि सभी प्रकार के दिव्य मुख्य न्यायाधीश के समक्ष सूर्योदय के समय या अपराह्म में राजा, सभ्यों एवं ब्राह्मणों के समक्ष कार्यान्वित होते थे। मिताक्षरा में लिखा गया है कि शिष्ट लोगों की परम्परा से रविवार उचित दिन माना जाता है । पितामह के अनुसार 'जल' दिव्य दोपहर के समय तथा 'विष' दिव्य रात्रि के अन्तिम प्रहर में होना चाहिए (मिताक्षरा, याज्ञ० २१६७)। इसी प्रकार कुछ ऋतुएँ एवं मास भी उपयुक्त या अनुपयुक्त समझे जाते थे, यथा--नारद (४।२५४) के अनुसार अग्नि दिव्य वर्षा ऋतु में उपयुक्त है, तुला शिशिर ऋतु में, जल ग्रीष्म ऋतु में तथा विष शीत ऋतु में । नारद (२१२५६) ने जल के
१०. अस्पृश्याधमदासानां म्लेच्छानां पापकारिणाम् । प्रातिलोम्यप्रसूतानां निश्चयो न तु राजनि ॥ तत्प्रसिद्धानि दिव्यानि संशये तेषु निर्दिशेत् ॥ कात्यायन (मिताक्षरा, याज्ञ० २०६६; स्मृतिचन्द्रिका २, पृ० १०४; पराशरमाधवीय ३, पृ० १६१; 'तत्प्रसिद्धानि सर्पघटादीनि व्यवहारतत्त्व (पृ० ५७६); व्यवहारप्रकाश (१८०) तत्प्रसिद्धानि सर्पघटादीनि इति स्मृतितत्त्वे ।' विक्रमादित्य षष्ठ (१०६८ ई०) के गदग नामक अभिलेख में (एपिग्रंफिया इण्डिका, जिल्द १५, पृ० ३४८, पृ० ३६०) ऐसा आया है--"हम खौलता हुआ जल छूते हैं, हम घट में रखे गये बड़े सर्प को ठोकते हैं या हम तुला पर चढ़ जाते हैं।" महामण्डलेश्वर कार्तवीर्य चतुर्थ के अभिलेख (१२०८ ई.) में (इण्डियन ऐण्टीक्वेरी, जिल्द १६,पृ० २४२, पृ० २४६) आया है कि सुगन्धवर्ती (सौण्डत्ती) के रट्टों के राजा लक्ष्मीधर की रानी चन्द्रिका (या चन्दलदेवी) पतिव्रता थी और उसे घटसर्प से सफलता मिली-"भाति श्लाघ्यगुणा प्रतिव्रततया देवी चिरं चन्द्रिका संप्राप्ता घटसर्पजातविजयं लक्ष्मीधरप्रेयसी।" बाम्बे गजेटियर (भाग १, परिच्छेद २, पृ० ५५६, टिप्पणी ५) ने एशियाटिक रिसर्चेज (भाग १) का एक उद्धरण दिया है जिससे घटसर्प के दिव्य का परिचय मिलता है; घट में साँप रहता है, उसमें अंगूठी या कोई सिक्का डालकर निकाला जाता है । और देखिए १६२४ सन् वाली रिपोर्ट आव साउथ इण्डियन एपिग्राफी, जहां खौलते हुए घी या तेल में अंगुलियां डालने के दिव्य का उल्लेख है।
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