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मानुष एवं दिव्य-प्रमाणों की तुलना
मानहानि तथा अन्य शक्तिप्रयोग के वादों में मानुष प्रमाण अथवा दिव्य प्रमाण का आश्रय लिया जा सकता है। नारद (४।२४२)ने स्त्री की पवित्रता के प्रश्न में, साहस-विवादों,धन या धरोहर से इनकार करने के मामलों में दिव्य की बात चलायी है। नारद के इस नियम से सीता का अग्नि-प्रवेश स्मरण हो आता है । बृहस्पति एवं पितामह ने स्थावर सम्पत्ति के विवादों में दिव्य प्रमाण-ग्रहण मना किया है। यह एक सामान्य नियम था कि प्रतिवादी को ही दिव्य ग्रहण करना पड़ता था (कात्यायन ४११ = विष्णुधर्मसूत्र ६२१)। किन्तु याज्ञ० (२१६६) ने एक विकल्प दिया है कि दोनों पक्षों में कोई भी पारस्परिक समझौते के फलस्वरूप दिव्य ग्रहण कर सकता है और ऐसा करने पर दूसरे पक्ष को हार जाने पर अर्थ-दण्ड देना पड़ता था या शारीरिक दण्ड सहना पड़ता था। इसका तात्पर्य यह होता है कि मानुष प्रमाण से साध्य का भावात्मक रूप तथा दिव्य प्रमाण से उसका अभावात्मक रूप सिद्ध करना पड़ता था, यथा प्रतिवादी को ऋण न लेने की बात को दिव्य-ग्रहण से सिद्ध करना पड़ता था। अर्थ-दण्ड देना या शारीरिक दण्ड सहना, शीर्षकस्थ या शिरस्थ कहलाता था (याज्ञ० २।६५; विष्णुधर्मसूत्र ६.२० एवं २२; पितामह; नारद ४।२५७; कात्यायन (४१२-४१३) । याज्ञ० (२।६५) ने व्यवस्था दी है कि तुला, अग्नि, विष एवं जल के दिव्य अधिक धन वाले विवादों में ही लागू होने चाहिए। उन्होंने पुनः कहा है कि १००० पण (ताम्र) को अधिक धन कहा जाता है (२०६६) । राजद्रोह एवं पंच महापातकों में बिना धन की परवाह किये उपर्युक्त दिव्यों में कोई भी ग्रहण किया जा सकता है। जब वादी हार जाने पर दण्ड देने को सन्नद्ध रहे तो प्रतिवादीद्वारा कोई भी दिव्य ग्रहण किया जा सकता है। थोड़े या कम सभी प्रकार के धन के विवादों में कोश नामक दिव्य का ग्रहण मान्य था, चाहे वादी हार जाने पर दण्ड देने को प्रतिश्रुत रहे या न रहे।
याज्ञ० (२०६८) के मत से तुला नामक दिव्य स्त्रियों, अल्पवयस्कों (१६ वर्ष से नीचे), बूढ़ों (अस्सी वर्ष के). अन्धों, लूले-लँगड़ों, ब्राह्मणों एवं रोगियों के लिए है, अग्नि (जलता हुआ हल का फाल या तप्त माष) क्षत्रियों के लिए, जल वैश्यों के लिए तथा विष शूद्रों के लिए है। यही बात नारद (४।३३५)ने भी कही है। नारद (४।२५६) ने कहा है कि व्रतधारियों, विपत्ति-ग्रस्त लोगों, तापसों एवं स्त्रियों को दिव्य ग्रहण नहीं करना चाहिए । इस सूची में पितामह ने नाबालिगों एवं बूढ़ों को जोड़ दिया है। किन्तु इस विषय में स्मतिचन्द्रिका (२, पृ० १०३) ने कहा है कि यह छूट केवल अग्नि, विष एवं जल के लिए है। एक स्मृति (मिताक्षरा, याज्ञ० २।६८) के मत से तुला एवं कोश नामक दिव्यों का ग्रहण स्त्रियों, नाबालिगों आदि के लिए भी मान्य है । इन उक्तियों में मानव की दुर्बलताओं के प्रति सहिष्णुता, दयालुता एवं अनुराग की गंध मिलती है । कात्यायन (४२३) के मत से उच्च जातियों के चरवाहों (गोरक्षकों या गोरखियों), व्यापारियों, शिल्पकारों, भाटों, नौकरों एवं सूदखोरों को शूद्र वाला दिव्य ग्रहण करना चाहिए। कात्यायन (४२२) ने सभी वर्गों या जातियों के लिए सभी प्रकार के दिव्य की व्यवस्था दी है, केवल ब्राह्मण को विष नामक दिव्य से बरी रखा है। कात्यायन (४२४-४२६) के मत से लोहारों या कोढ़ियों के लिए अग्नि, मल्लाहों या उनके लिए जो श्वास या
७. गूढसाहसिकानां तु प्राप्तं दिव्यः परीक्षणम् । कात्यायन (मिताक्षरा, याज्ञ. २।२२ एवं स्मृतिचन्द्रिका २, पृ० ५१) । प्रकान्ते साहसे वादे पारुष्ये दण्डवाचिके । बलोद्भूतेषु कार्येषु साक्षिणो दिव्यमेव वा ॥ कात्यायन (मिताक्षरा, याज्ञ० २१२२, अपरार्क, पृ० ६२६ एवं स्मृतिचन्द्रका २, पृ० ५१)।।
८. स्थावरेषु विवादेषु दिव्यानि परिवर्जयेत् । पितामह (मिताक्षरा, याज्ञ० २।२२, स्मृतिचन्द्रिका २, पृ० ५३); वोक्पारुष्ये महीवादे निषिद्धा वैविकी क्रिया। बृहस्पति (अपरार्क, पृ० ६२६ एवं स्मृतिचन्द्रिका २, पृ० ५३) ।
६. न कश्चिदभियोक्तारं दिव्येषु विनियोजयेत् । अभियुक्ताय दातव्यं दिव्यं दिव्यविशारदः ॥ कात्यायन (अपरार्क, पृ० ६६५, पराशरमाधवीय ३।१५३, व्यवहारप्रकाश, पृ० १७२) ।
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