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धर्मशास्त्र का इतिहास
शताब्दियों में दिव्यों का प्रचलन था, जैसा कि मृच्छकटिक (६।४३) नाटक ( जहाँ विष, जल, तुला एवं अग्नि का उल्लेख है) एवं बाण की कादम्बरी (४७) से प्रकट होता है । निबन्धों एवं टीकाओं में मिताक्षरा, स्मृतिचन्द्रिका, दिव्यतत्त्व ( रघुनन्दन लिखित), व्यवहारमयूख एवं व्यवहारप्रकाश दिव्य-विवेचन में प्रमुख स्थान रखते हैं ।
मानुष प्रमाण द्वारा सिद्ध न होने पर विवाद को निर्णय तक पहुँचाने में दिव्य सहायक होते हैं। इसी से दिव्य की परिभाषा यों दी गयी है- 'मानुष प्रमाण से निश्चित न होने पर जो विवाद को तय करता है, उसे दिव्य कहते हैं, ( व्यवहारमयूख) तथा 'जो मानुष प्रमाण से न हो सके या न सिद्ध किया जा सके उसे जो सिद्ध करता है वह दिव्य कहलाता है, (दिव्यस्व, पृ० ५७४) । ४ मनु ( ८।११६ ) की व्याख्या में मेधातिथि ने सत्य के उद्घाटन में दिव्य के आश्रय लेने के प्रश्न पर विचार किया है। यहाँ विरोध खड़ा होता है कि अग्नि एवं जल प्राकृतिक शक्तियाँ हैं जो समान रूप से कार्यशील होती हैं, वे ऐसी शक्तियाँ हैं जो जीवों की भाँति ऐसी बुद्धि नहीं रखतीं कि मनुष्यों को अपना मन परिवर्तन करने में प्रेरित कर सकें। अतः विरोधी कहता है कि दिव्य एवं शपथ इन्द्रजाल (जादू) के समान हैं जो लोगों को सत्य बोलने के लिए भयभीत करते हैं। इसका उत्तर यों है- "असफलताओं के उदाहरणों से दिव्य की उपयोगिता नहीं घटती; क्योंकि वे अधिकता से प्रयुक्त नहीं होते और न वे प्रत्यक्ष हो हैं और उनके आधार पर किये गये अनुमान के प्रतिफल अनिश्चयात्मक होते हैं इसीलिए वे अनुपयोगी हैं, ऐसा नहीं कहा जा सकता। इन दिव्यों पर विश्वास नहीं होना चाहिए, ऐसा कोई नहीं कह सकता । जिस प्रकार साक्षियों पर विश्वास किया जाता है (यद्यपि वे झूठे भी हो सकते हैं) उसी प्रकार दिव्यों पर भी विश्वास किया जा सकता है। यदि दिव्यों से असफलता मिले तो यह समझना चाहिए कि दिव्य लेने वाले के पूर्वजन्म का यह प्रतिफल है।" याज्ञ० (२।२२), नारद (२/२६, ४१२३६), बृहस्पति, * कात्यायन (२१७) एवं पितामह ने दिव्यों के विषय में यह सामान्य नियम दिया है कि इनका प्रयोग तभी होना चाहिए जब अन्य मनुष्य-प्रमाण ( यथा -- साक्षी - गुण, लेख- प्रमाण, भोग) या परिस्थिति जन्य प्रमाण उपस्थित न हों । कात्यायन ( २१८-२१६) का कथन है कि यदि एक दल मानुष प्रमाण में विश्वास करे और दूसरा दिव्य-प्रमाण पर, तो राजा ( या न्यायाधीश ) को मानुष प्रमाण स्वीकार करना चाहिए; यदि मानुष प्रमाण साध्य के किसी एक ही अंश को सिद्ध करे तो उसे ही मानना चाहिए न कि दिव्य प्रमाण का सहारा लेना चाहिए, भले ही दिव्य प्रमाण सम्पूर्ण साध्य से सम्बन्धित हो । ६ नारद ( २।३० = ४/२४१ ) का कथन है कि जब लेन-देन जंगल में, एकान्त में, रात्रि में गृह के भीतर हो तब दिव्य प्रमाण ग्रहण करना चाहिए; यही नही, प्रत्युत साहस ( हिंसा - कर्म ) के वादों में, या जब निक्षेप ( धरोहर ) से इनकार हो तब भी ऐसा हो सकता है । कात्यायन (२ ने एकान्त में ( वेष बदल कर ) किये गये साहस के वादों में दिव्य ग्रहण की छूट दी है, किन्तु यह भी तभी जब कि मानुष प्रमाण उपस्थित न हो । कात्यायन ( २२६) ने अपवाद भी दिये हैं; साहस, आक्रमण,
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४. तत्र मानुषप्रमाणानिर्णयस्यापि निर्णायकं यत्तद्दिव्यमिति लोकप्रसिद्धम् । अपिना मानुषप्रमाणसत्त्वेऽपि यत्र चैव घटाद्यङ्गकारस्तत्राप्येतद् भवतीति सूचितम् । दिव्यतत्त्व ( पृ० ५७४) ।
५. प्रमाणहीने वादे तु निर्दोषा देविको क्रिया । बृहस्पति ( व्यवहारप्रकाश, पृ० १६६ ) ; सम्भवे साक्षिणां प्राज्ञो दैविकीं वर्जयेत् क्रियाम् । कात्यायन (स्मृतिचन्द्रिका २, पृ० ५१ ) ; यस्मिन् यस्मिन् विवादे तु साक्षिणां नास्ति सम्भवः । साहसेषु विशेषण तत्र दिव्यानि दापयेत् ॥ पितामह (स्मृतिचन्द्रिका २, पृ० ६५ ) |
६. यद्येको मानुषीं ब्रूयादन्यों ब्रूयात्तु दैविकीम् । मानुषीं तत्र गृहणीयान्न तु दंवीं क्रियां नृपः ॥ यद्येकदेशव्याप्तापि क्रिया विद्येत मानुषी । सा ग्राह्या न तु पूर्णापि दैविको वदतां नृणाम् ।। कात्यायन ( मिताक्षरा, याज्ञ० २१२२; व्यवहारमातृका पृ० ३१५) ।
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