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अध्याय १४
दिव्य
यहाँ पर दिव्यों का विवरण संक्षिप्त रूप में उपस्थित किया जा रहा है। ऋग्वेद (१।१५८।४-५)१ में उचथ के पुत्र दीर्घतमा ने प्रार्थना की है कि दसगुनी लकड़ियों अथवा ईंधनों की अग्नि उसे जला न सके, वे नदियाँ, जिनमें वह हाथ-पांव बाँधकर फेंक दिया गया है, उसे डुबा न सकें । इस कथन में कुछ लोगों ने अग्नि एवं जल के दिव्यों का संकेत पाया है। किन्तु लगता है, ऐसी बात है नहीं, यहाँ पर वेतन के नेतृत्व में दासों द्वारा दीर्घतमा को दिये गये कठोर बर्ताव की ओर संकेत मात्र है। इसी प्रकार ऋगवेद (३१५३।२२)२ का यह कथन "वह कुल्हाड़ी गर्म कर रहा है", उस दिव्य की ओर संकेत नहीं करता जिसमें गर्म कुल्हाड़ी पकड़ी जाती है। ३ अथर्ववेद (२।१२।८) के कथन में भी पश्चिमी विद्वानों को दिव्य की झलक मिली है, हाँ, आठवें मंत्र से कुछ ऐसा प्रकट होता है। पंचविंश (या ताण्ड्य) ब्राह्मण (१४ा. ६।६) ने वत्स की कथा कही है। वत्स की विमाता ने उसे शूद्रा से उत्पन्न कहा और वत्स ने इसका विरोध कर कहा कि वह ब्राह्मण है । वह अपन कथन की पुष्टि के लिए अग्नि में कूद पड़ा और बिना जले निकल आया। मनु (८।११६) ने भी इस कथा की चर्चा की है । सम्भवतः संस्कृत साहित्य में यह दिव्य का प्राचीनतम उदाहरण है । छान्दोग्योपनिषद् (६।१६।१) में गर्म कुल्हाड़ी पकड़े जाने की चर्चा हुई है, जो दिव्य-सम्बन्धी दूसरा प्राचीन उदाहरण है । आपस्तम्बधर्मसूत्र (२।११।२६६) में भी दिव्य की चर्चा है । एक अन्य स्थान (२।५।११।३) पर भी आपस्तम्ब ने ऐसा ही कहा है---दिव्य प्रमाण से एवं (साक्षियों से) प्रश्न करके राजा को दण्ड देना चाहिए। शंख-लिखित ने चार प्रकार के दिव्यों के नाम लिये हैं, यथा--तुला, विष, जल एवं जलता हुआ लोह । मनु (८।११४) ने केवल दो के नाम लिये हैं, यथाहाथ से अग्नि उठाना (अर्थात् जलता हुआ लोह पकड़ना) तथा जल में कूदना। किन्तु नारद (४१२५१) के कथनानुसार मनु ने दिव्य के पांच प्रकार दिये हैं। याज्ञ० (२।६५), विष्णुधर्मसून (६-१४) एवं नारद (४।२५२) ने पांच प्रकार दिये हैं, यथा--तुला, अग्नि, जल, विष एवं कोश (पवित्र किया हुआ जल) । किन्तु दो अन्य प्रकार भी ज्ञात थे। तप्त माष (४।३४३) एवं तण्डुल (४१३३७)। बृहस्पति एवं पितामाह ने नौ प्रकार दिये हैं (अपरार्क, क्रम से पृ० ६२८ एवं ६६४)।
पितामह द्वारा उपस्थापित दिव्य-सूची के विषद विवरण याज्ञ० (२।६५-११३), विष्णुधर्मसूत्र (६-१४), नारद (४।२३६-३४८), कात्यायन (४११-४६१) एवं शुक्र (४।५।२३३-२७०) में प्राप्त होते हैं। ईसा की आरम्भिक
१. मा मामेधो दशतयश्चितो धाक् प्र यद्वा बद्धस्त्मनि खादति क्षाम् ॥ न मा गरनद्यो मातृतमा वासा यदी सुसमन्धमवाधुः ॥ ऋग्वेद (१११५८।४-५) ।
२. परशुं चिद्वि तपति शिम्बलं चिद्वि वृश्चति । उखा चिदिन्द्र येषन्ती प्रयस्ता फेनमस्यति ॥ ऋग्वेद (३॥५३॥२२) ।
३. आ दधामि ते पवं समिद्धे जातवेदसि । अग्निः शरीरं वेवेष्ट्वसं वागपि गच्छतु ।। (अथर्ववेद २।१२।८।)
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