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________________ साक्ष्य, परिस्थिति, अनुमान और दिव्य प्रमाण ७४५ 1 एवं असत्य ठहर जाते हैं । इस प्रकार के निर्णयों की भ्रामकता से प्राचीन न्यायाधिकारी एवं स्मृतिकार परिचित थे नारद के कथन की ओर अभी ऊपर संकेत किया जा चुका है । कौटिल्य ( ४1८) ने घोषित किया है; जो चोर नहीं है वह भी चोर मार्ग से अचानक गुजर सकता है, या जाता हुआ दिखायी पड़ सकता है, इसी प्रकार कोई निर्दोष भी चोरों की जमात में उनके वस्त्र, हथियारों एवं सामानों के साथ यों ही अचानक देखा जा सकता है अथवा चोरी के सामान के पास देखा जा सकता है, यथा-- माण्डव्य, जो चोर नहीं थे, किन्तु उन्होंने मारपीट की वेदना से बचने के लिए अपने को भी चोर कहा; अतः राजा को सम्यक् परीक्षा के उपरान्त ही दण्ड देना चाहिए । परिस्थिति-जन्य प्रमाण मात्र ( सरक मस्ट सिएल एविडेन्स) के आधार पर ही स्थित रहने के दोष को माण्डव्य का उदाहरण ( लीडिंग केस ) स्पष्ट करता है। बिना सम्यक् तर्क-विचार के ऋषि माण्डव्य को चोर सिद्ध किया गया था । १७ मृच्छकटिक नाटक ( अंक ६) भी परिस्थिति-जन्य प्रमाणों के आधार पर किये गये निर्णयों की भ्रामकता की ओर संकेत करता है । नारद (४।२८६) ने व्यवस्था दी है कि जब परिस्थिति-जन्य प्रमाण एवं उन पर आधारित अनुमानों से निर्णय करने में सफलता न हो तो न्यायाधीश को स्थान, समय एवं विवादी की शक्ति के अनुकूल दिव्य या शपथ दिलानी चाहिए, यथा - अग्नि, जल, आध्यात्मिक फल प्राप्ति आदि । यही बात मनु ( ८ १०६) ने भी कही है। दिव्य प्रमाण को देवी क्रिया या समय-क्रिया कहा जाता है ( विष्णुधर्मसूत्र ६ । १) । कुछ स्मृतियों ने शपथों और दिव्यों (आडियल) में भिन्नता घोषित की है, किन्तु मनु ( ८1१०६ - ११४) एवं नारद ( ४।२३६) ने ऐसा नहीं किया है। मिताक्षरा (याज्ञ० २२६६ ) एवं सरस्वती विलास ( पृ० १०६) ने शपथों एवं दिव्य प्रमाण को देव प्रमाण माना है। छोटे-छोटे विवादों में सामान्यतः शपथों की एवं गम्भीर अपराधों में दिव्य की आवश्यकता पड़ती थी। मिताक्षरा (याज्ञ० २२६६), व्यवहारमयूख ( पृ० ४६) एवं व्यवहारप्रकाश ( पृ० १७० ) का कथन है कि दिव्यों से सामान्यतः तुरत निर्णय होता है, किन्तु शपथों से देर लगती है, क्योंकि राजा को देखना पड़ता था कि शपथ लेने वाले पर एक सप्ताह या कुछ दिन के उपरान्त विपत्ति पड़ती है कि नहीं । व्यास (स्मृतिचन्द्रिका २, पृ० ६६) ने शपथों एवं दिव्यों को तुला (तराजू) माना है। शंख - लिखित के अनुसार दिव्य प्रमाण हैं तुला, विष-पान, अग्नि प्रवेश, अग्नि में तपे हुए लोहे को पकड़ना, यज्ञ एवं दान से उत्पन्न फलों का त्याग तथा राजा द्वारा अन्य शपथें दिलाना । बृहस्पति का कथन है कि जब साक्षी, अनुमान एवं परिस्थिति-जन्य प्रमाणों में अन्तर पड़ जाय तो मामले का निर्णय दिव्य प्रमाण से करना चाहिए । शपथका आश्रय केवल व्यवहार अथवा न्याय-विधियों में ही नहीं लिया जाता, प्रत्युत सामान्य बातों में, यथा अपनी बात सिद्ध करने, अपने चरित्र एवं प्रसिद्धि को भी प्रमाणित करने में इसका आश्रय लिया जाता है। नारद (४) १७. दृश्यते ह्यचोरोऽपि चोरमार्गे यदृच्छया संनिपाते चोरवेशशस्त्र माण्डसामान्येन गृह्यमाणो दृष्टः, चोरभाण्डस्योपवासेन वा यथा हि माण्डव्यः कर्म क्लेशभयादचोरश्चोरोऽस्मीति ब्र ुवाणः । तस्मात्समाप्त करणं नियमयेत् । कौटिल्य ( ४१८ ) ; केवलं शास्त्रमाश्रित्य न कर्तव्यो हि निर्णयः । युक्तिहीनविचारे हि धर्महानिः प्रजायते ॥ atisaौरः साध्वसाधुर्जायते व्यवहारतः । युक्तिं विना विचारेण माण्डव्यश्चौरतां गतः ॥ बृहस्पति ( व्यवहारप्रकाश, पृ० १३-१४, पराशरमाधवीय ३, पृ० ३६) । स्मृतिचन्द्रिका (२, पृ० २५) ने नारद ( १/४२ ) को उद्धृत किया है; यात्यचोरोपि चोरत्वं चोरश्चायाव्यचोरताम् । अचोरश्चोरतां प्राप्तो माण्डव्यो व्यवहारतः ॥ माण्डव्य ने मौनव्रत धारण किया था, अतः कठिन यातना के भय से उन्होंने मौन रूप से चोरत्व स्वीकार कर लिया, क्योंकि वे चोरी की गयी सम्पत्ति के पास पाये गये थे। आगे चलकर उनकी स्वीकारोक्ति का भण्डाफोड़ हुआ । माण्डव्य का यह वृत्तान्त एक प्रसिद्ध दृष्टान्त कहा जाता है और परिस्थितिजन्य प्रमाणों की भ्रामकता की ओर संकेत करता है। २२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002790
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size12 MB
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