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धर्मशास्त्र का इतिहास
एव चोरी के मामलों में यदि एक अंश भी सिद्ध हो जाय तो सम्पूर्ण सत्य माना जाता है, ऐसा कात्यायन (३६७ ) ने कहा है । १२
नारद (४/१६५) का कथन है कि मुकदमा लड़ने वाले को विरोधी के साक्षी के पास गुप्त रूप से नहीं जाना चाहिए और न उसे घूस या धमकी देकर अपनी ओर मिलाने का प्रयत्न करना चाहिए; यदि वह ऐसा करता है तो वह अपने को हीन अर्थात् हारने वाला दल समझे ।
देर में साक्षी उपस्थित करने के विषय में भी नियम बने हुए हैं। दुर्बल प्रमाणों के कारण यदि हार हो जाय तो पुनः सबल प्रमाण नहीं उपस्थित किये जा सकते । नारद ( १।६२ ) का कथन है कि यदि मुकदमा बहुत आगे बढ़ गया हो तो पूर्व से ही अनुपस्थित किये गये लेखप्रमाण, साक्षियां आदि निरर्थक हो जाते हैं। प्रतिवादी द्वारा प्रतिवेदन दे दिये जाने पर वादी को प्रमाण अर्थात् लेखप्रमाण, साक्षी आदि की सूची दे देनी होती है (याज्ञ० २७ ) | कहने का तात्पर्य यह है कि यदि वादी ऐसा नहीं करता और मामला आगे बढ़ा लेता है तथा अन्य आवश्यक साक्षियों को नहीं बुला लेता या सभी प्रमाण नहीं एकत्र कर लेता और मामला जब समाप्तप्राय हो जाता है ( किन्तु अभी निर्णय नहीं घोषित रहता ) तो उस स्थिति में वह कोई नवीन प्रमाण नहीं उपस्थित कर सकता, क्योंकि ऐसी दशा में कोई नवीन प्रमाण उपस्थित किये जाने पर प्रतिवादी को दिक्कत हो सकती है और वह उसे अप्रमाणित सिद्ध करने के लिए समय की मांग रख सकता है; इतना ही क्यों, तब वादी भी पुनः कोई नवीन प्रमाण उपस्थित कर सकता है और इस प्रकार दोनों पक्षों से लगातार समय की मांगें की जा सकती हैं और मामला अनन्त काल तक चलता जा सकता है। किन्तु यदि पहले से ही सभी साक्षियों की सूची दे दी गयी हो और केवल थोड़े की ही जांच हुई हो और आगे चलकर वादी यह समझे कि कुछ साक्ष्यों में त्रुटि हो गयी है, तो वह अन्य साक्षियों को बुलाने का अधिकार रखता है । यह छूट याज्ञ ० (२१८०) ने दी है जिसके बल पर मिताक्षरा में कहा गया है कि आगे चलकर कुछ प्रतिष्ठित साक्षियों की जांच की जा सकती है। नियम यह है कि जब तक साक्षी मिलते जायें, दिव्य ग्रहण (दिव्य परीक्षा, ऑडियल) की नौबत न आने पाये । याज्ञ० ( २८० ) ने बहुत-सी व्यायाएँ करने के लिए अवसर दे दिया है। इस विषय में देखिये मिताक्षरा एवं अपराकं, स्मृतिचन्द्रिका (२, पृ०६४) व्यवहारप्रकाश, (पू० १३० १३४ ) ।
याज्ञवल्क्य (२२८२ ) ने व्यवस्था दी है कि यदि कोई साक्षी प्रतिवचन देने के उपरान्त जाँच के समय मुकर जाता है तो उसे हारे हुए दल द्वारा दिये जाने वाले धन का आठ गुना दण्ड रूप में देना पड़ता है । यदि ऐसा अपराध किसी ब्राह्मण ने किया हो और उसके पास उतना धन न हो तो उसे देश-निष्कासन का दण्ड मिलता है या उसका घर गिरा कर मैदान के बराबर कर दिया जाता है। नारद ( ४।१६७ ) के अनुसार ऐसा साक्षी असत्यवादी साक्षी से भी गया बीता है | मनु ( ८1१०७ ), याज्ञ ० (२/७६ ) एवं कात्यायन (४०५ ) ने कहा है कि यदि कोई जानकार साक्षी गवाही नहीं करता (मौन रह जाता है) और किसी रोग से पीड़ित या विपत्तिग्रस्त नहीं है तो उसे विवाद का धन दण्ड रूप में तथा उसका दशांश राजा को देना पड़ता है ।
साक्ष्य ग्रहण के उपरान्त मुख्य न्यायाधीश एवं सभ्य लोग साक्षियों पर विचार-विमर्श करते हैं। न्यायालय को इसका पता चलाना पड़ता है कि किन साक्षियों पर विश्वास करना चाहिए और कौन-से साक्षी कूट या कपटी हैं। कूट साक्षी को धर्मशास्त्रकारों ने बहुत बुरा कहा है; इससे लौकिक एवं पारलौकिक हानि होती है ( आपस्तम्बधर्मसूत्र २।११।
१२. साध्यार्थांशेपि गदिते साक्षिभिः सकलं भवेत । स्त्रीसंगे साहसे चौयें यत्साध्यं परिकल्पितम् ॥ कात्यायन ( मिताक्षरा द्वारा याज्ञ० २।२० में, अपरार्क द्वारा पृ० ६७८ में तथा स्मृतिचन्द्रिका द्वारा २, पृ० ६० में उद्धत ) ।
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