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साक्ष्य-पद्धति
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ववादों में न्यायालय एवं अचल सम्पत्ति के स्थान के अतिरिक्त अन्य स्थानों में भी ऐसा किया जा सकता है। पशुओं के शव था उनकी हड्डियों के समक्ष भी साक्ष्य लिया जा सकता है। बहस्पति एवं मन (८.२५) के मत से साक्षियों के सत्य भाषण की जांच उनके कथन के ढंग, कांति-परिवर्तन, आंखों, हाव-भाव आदि से भी करनी चाहिए । शंखलिखित (व्यवहारप्रकाश, पृ० १२४), नारद (४।१६३-१६६), विष्णुधर्मसूत्र (८1१८), याज्ञ० (२०१३-१५), कात्यायन (३८६) ने झूठ बोलने वाले गवाह (साक्षी) की क्रियाओं एव व्यवहार-प्रदर्शन को इस प्रकार से व्यक्त किया है--वह परेशान अथवा अस्थिर या अशान्त (व्याकुल) दीख पड़ता है, स्थान-परिवर्तन करता रहता है, अधरों के कोणों को चाटता है, उसके मस्तक पर स्वेद-कण झलकते हैं, चेहरे का रंग उड़ जाता है, वह बहुधा खांसता है और लम्बी-लम्बी साँसें भरता है, पैर के अंगठे से पृथ्वी (जमीन) कुरेदता है, हाथ एवं वस्त्र हिलाता है, उसका मुख सूख जाता है और अस्त-व्यस्त बोलता है, बिना पूछे अनर्गल बातें करता है, प्रश्न का सीधा उत्तर नहीं देता, प्रश्नकर्ता की आखों से बचता रहता है । इस प्रकार के साक्षी को झूठा समझा जा सकता है और राजा तथा न्यायाधीश को उसे अनुशासित करना चाहिए (जिससे कि यह झूठ बोलने से डरे) । किन्तु इन व्यवहारों के कारण ही साक्षी को झुठा नहीं कहा जा सकता था या उसे दण्डित नहीं किया जाता था, क्योंकि इन चेष्टाओं से केवल असत्यता की सम्भावना मान प्रकट होती है न कि उसकी असंगतता (मिताक्षरा--याज्ञ० २।१५ तथा व्यवहारप्रकाश, पृ० १२४)।
____ जब बहुत-से साक्षी हो और उनके कथनों में अन्तर पाया जाय तब ऐसी दशा में निर्णय के लिए कई नियम बने हुए थे । देखिए मनु (८७३), विष्णु धर्मसूत्र (८।३६), याज्ञ० (२७८), नारद (४।२२६), बृहस्पति एवं कात्यायन (४०८)। वे नियम संक्षेप में ये हैं--बहुमत स्वीकार कर लिया जाता था, यदि आधे लोग एक मत के पक्ष में और आधे दुसरे मत के पक्ष में हों तो उन लोगों के मत जो अधिक चरित्रवान एवं तटस्थ रहते थे ग्रहण कर लिये जाते थे:किन्त यदि ऐसे लोगों में भी अन्तर पडता था तो सर्वोच्च लोगों का मत ग्राह्य माना जाता था। याज्ञ ० (२०७२) ने संख्या की अपेक्षा गुण को महत्ता दी है। मिताक्षरा (याज्ञ० २।७८) ने भी यही स्वीकार किया है । कौटिल्य (३।११)ने उपर्युक्त मत स्वीकार करते हुए औसत निकालने को कहा है । नारद (४।१६०) एवं कात्यायन (३५६) का मत है कि यदि तीन में किसी एक साक्षी का मत भिन्न हो तो तीनों के मत विरोधी ठहरा दिये जाने चाहिए। ये मत मौखिक साक्षियों अथवा प्रमाणों के विषय में प्रतिपादित किये गये हैं।
किसी पक्ष द्वारा उपस्थापित साक्षियों की कितनी बातें स्वीकार्य होनी चाहिए? याज्ञ० (२७६),विष्णुधर्मसूत्र (८।३८),नारद(४१२७)एवं बृहस्पति (स्मृतिचन्द्रिका २, पृ०६१)ने एक सामान्य नियम दिया है कि वह दल, जिसका प्रतिवेदन साक्षियों द्वारा पूर्णतः सत्य घोषित किया गया है, सफलता पाता है और वह दल जिसका कथन सभी साक्षियों द्वारा झूठा कहा गया है, हार जाता है। इस विषय में अन्य बातें देखिये, नारद (४।२३३) एवं कात्यायन (३६६)। याज्ञ० (२।२०) में एक महत्त्वपूर्ण बात कही गयी है। यदि किसी मामले का एक अंश सत्य सिद्ध हो जाय तो सम्पूर्ण को सत्य मानना चाहिए। किन्तु यह तभी तक मान्य है जब तक विरोधी वादी के कथन के सभी अंशों को असत्य मानता है । यह एक अनुमान मान है और राजा तथा न्यायाधीश इसका सहारा लेने पर दोषी नहीं ठहरते, यथा --'न्यायाधिगमे तर्कोऽभ्युपायः ।...तस्माद्राजाचार्यावनिन्द्यौ।' किन्तु याज्ञ० (२।२०) के कथन से कात्यायन (४७२) का मत उलटा पड़ता है; 'किसी मामले के बहुत-से अंशों में वादी या प्रतिवादी उतने ही पर जय पाता है जितने को वह सिद्ध कर सकता है ।' मिताक्षरा (याज्ञ० २।२०), स्मृतिचन्द्रिका (२, पृ० १२०-१२१), व्यवहारमातृका (पृ० ३१०.३१२) एवं व्यवहारप्रकाश (प०६८-१०२) ने उपर्युक्त मतों में समझौता कराने का प्रयत्न किया है। हम स्थानाभाव के कारण विस्तार में नहीं जा सकते । बलात्कार, साहस के अपराधों
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