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धर्मशास्त्र का इतिहास
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नियम दिये हैं । गौतम (१३।१३ ) एवं कात्यायन ( मिताक्षरा, याज्ञ० २०७३ ) आदि की बातें भी अवलोकनीय हैं । ' जनता के समक्ष एवं शपथ लेकर कहने से झूठे साक्षी पर अवरोध अवश्य लग जाता है । शपथ के दो भाग हैं ; ( 1 ) सत्य कहने की आवश्यकता एवं (२) उपदेशकता तथा अनिष्टावेदनता । मुख्य न्यायाधीश के समक्ष ही दोनों प्रकार की शपथों का ग्रहण होता था । गौतम ( १३।१२-१३) ने ब्राह्मण साक्षी के लिए शपथ लेना आवश्यक नहीं माना है, किन्तु मनु (८|११३ = नारद ४।१६६) ने ऐसा नहीं कहा है । गौतम ( १३/१४-२३), मनु ( ८1८१-८६ एवं ८६-१०१), विष्णुधर्मसूत्र (८।२४-३७) एवं नारद (४।२०१-२२८) ने शपथ के विषय में लम्बा विवरण उपस्थित किया है, जिसे हम यहाँ नहीं दे सकेंगे । याज्ञ० (२।७३-७५), वसिष्ठ ( १६।३२-३४), बौधायनधर्मसूत्र (१०।१६ १६-१२ ), बृहस्पति, कात्यायन (३४३) एवं नारद (४/२००) का विवरण छोटा है; 'न्यायाधीश को प्राचीन ग्रन्थों से उद्धरण देकर सत्य भाषण की महत्ता एवं असत्य भाषण के दोष आदि पर प्रकाश डालकर साक्षी को उचित कथन के लिए प्रेरित करना चाहिए।' इस विषय में यह ध्यान रखना आवश्यक है कि विभिन्न वर्णों के लिए विभिन्न बातें कही गयी हैं, यथा-- ब्राह्मण के लिए "सत्य के लिए सत्य बोलो", क्षत्रिय साक्षी के लिए "जिस पशु की सवारी करते हो तथा जो आयुध ग्रहण करते हो उसकी शपथ लेकर सत्य कहो ” -- ऐसा विधान था, वैश्यों को अपने अन्न, पशुओं आदि की शपथ लेनी पड़ती थी तथा शूद्र को सभी भयंकर पापों के लिए सिर छूकर शपथ लेनी होती थी। मिताक्षरा (याज्ञ० २/ ७३ एवं मनु ८ । ११३ की व्याख्या) में ऐसा आया है कि ब्राह्मण साक्षी को यह कहकर कि यदि 'तुम असत्य कहोगे तो तुम्हारी सचाई नष्ट हो जायगी' शपथ दिलानी चाहिए, 'तुम्हारे वाहन एवं आयुध फलहीन होंगे यदि तुम असत्य बोलोगे', ऐसा क्षत्रिय साक्षी से कहना चाहिए, 'तुम्हारे असत्य कथन से तुम्हारे पशु, अन्न, सोना आदि नष्ट हो जायेंगे' ऐसा वैश्य से कहना चाहिए तथा 'सभी पापों की गठरी तुम्हारे सिर पर होगी' ऐसा शूद्र से कहना चाहिए ।
स्मृतियों एवं मृच्छकटिक नाटक ( अंक ६ ) से प्रकट होता है कि मुख्य न्यायाधीश तथा न्यायाधीश ही साक्षियों से प्रश्न करते थे और प्रश्न - प्रति प्रश्न का ढंग, जैसा कि आजकल के न्यायालयों में होता है, उन दिनों नहीं था । केवल साक्षी की अयोग्यता, अनुपयुक्तता या दोषों के प्रतिपादन या उद्घाटन में ही प्रश्न - प्रति प्रश्न अथवा जिरह की परिपाटी लागू थी । साक्षियों को अनिवार्य रूप से न्यायालय में उपस्थित होना पड़ता था ( कौटिल्य ३।११, मनु ८ १०७, याज्ञ ० २७७, बृहस्पति कात्यायन, विष्णुधर्मसूत्र ८ ३७ ) । कौटिल्य ( ३19 ) ने साक्षियों के खाने-पीने के प्रबन्ध की व्यवस्था बतलायी है । क्या दोनों दलों को अपनी ओर से स्वयं साक्ष्य देने की छूट थी ? इस विषय में स्पष्ट बातें नहीं ज्ञात हो पातीं । याज्ञ० (२।१३-१५), कौटिल्य (४८) ११ एवं मृच्छकटिक (अंक ६ ) से तो प्रकट होता है कि ऐसी छूट थी। किन्तु शुक्र (४।५।१८४ ) ने साक्षी की जो व्याख्या की है उससे प्रकट होता है कि मुकदमेबाजों को ऐसी छूट नहीं प्राप्त थी ।
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सामान्यतः साक्षियों की जाँच खुले न्यायालय में एव दोनों दलों के समक्ष होती थी, किन्तु कात्यायन ( ३८७३८६) का कहना है कि अचल सम्पत्ति के विवाद में सम्पत्ति के स्थान पर मौखिक साक्ष्य लिया जा सकता है और कुछ
१०. पुण्याहे प्रातरग्नाविद्धऽपामन्ते राजवत्युभयतः समाख्याप्य सर्वानुमते मुख्यां सत्यं प्रश्नं ब्रूयात् । आपस्तम्बधर्मसूत्र (२।११।२६/६ ) ; देवब्राह्मणसांनिध्ये साक्ष्यं पृच्छेदृतं द्विजान् । उदङ मुखान्प्राङमुखान्वा पूर्वाह्न वं शुचिः शुचीन् || आहूय साक्षिणः पृच्छन्नियम्य शपथैर्भृशम् । समस्तान् विदिताचारान् विज्ञातार्थान् पृथक्-पृथक् ॥ कात्यायन ३४४-४५; मिताक्षरा ( याज्ञ० २।७३ ) ; मनु (८८७) एवं नारद (४/१६८ ) ।
११. ततः पूर्वस्याह्नः प्रचारं रात्रौ निवासं चाग्रहणादिति अनुयुञ्जीत । कौटिल्य ।
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