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साक्षियों के प्रकार; साक्ष्य-पद्धति
७३६ लेन-देन की बातें सुने रहता है तथा(५) उत्तर साक्षी, अर्थात् जो किसी ऐसे व्यक्ति से सुने जो या तो दूर देश जा रहा हो या मरणतुल्य हो। छ: प्रकार के अकृत ये हैं--(१) सीमा-विवादों में एक ही ग्राम के वासी, (२) मुख्य न्यायाधीश, (३) राजा (जिसके समक्ष कोई मामला चला था), (४) कार्य-मध्यगत, अर्थात वह जो दोनों पक्षों के लेन-देन के समय उपस्थित रहा हो, (५) बूतक (वह जो आभूषण लाने या कोई लेन-देन तय करने के लिए भेजा गया हो) तथा (६) बंटवारे जैसे मामलों में कुटुम्ब के अन्य सदस्य । बृहस्पति ने बारह साक्षियों के नाम दिये हैं जो नारद की सूची के समान ही हैं और इसका अतिरिक्त बारहवाँ है लेखित, जिसका नाम लेन-देन के समय किसी साक्षी के समक्ष लिख लिया जाता है। लिखित एवं लेखित में अन्तर यह है कि प्रथम अपना नाम स्वयं लिखता है और दूसरे का नाम किसी पक्ष द्वारा किसी साक्षी के समक्ष लिख लिया जाता है।
__ साक्ष्य देने के पूर्व विरोधी दल साक्षी की अयोग्यता सिद्ध करने का प्रयत्न करता है। कात्यायन का कथन है कि विपक्ष को चाहिए कि वह साक्षी के गुप्त अथवा अप्रकट दोषों को व्यक्त कर दे,किन्तु स्पष्ट दोषों का वर्णन तो न्यायालय के सदस्यों द्वारा निर्णय देते समय किया जाता है। इस विषय में व्यास का कथन अवलोकनीय है; "साक्षियों के दोषों को विपक्ष के लोगों द्वारा न्यायालय में लिखित करा देना चाहिए और साक्षियों द्वारा उनका उत्तर मिला देना चाहिए। यदि साक्षी-गण बतलाये हुए दोषों को मान लेते हैं तो माक्षी देने के अयोग्य ठहर जाते हैं। किन्तु ऐसा न होने पर साक्ष्यों द्वारा (अन्य प्रमाणों द्वारा) विपक्ष के लोगों को चाहिए कि वे उन साक्षियों को अयोग्य सिद्ध कर दें। यदि ऐसा नहीं होगा और विपक्ष के लोगों के अन्य साक्षियों द्वारा वे दोष प्रदशित होते चले गये तो अनवस्था(कभी भी न समाप्त होने वाला)दोष उत्पन्न हो जायगा,क्योंकि फिर तो दूसरा दल भी अपने विपक्षी के साक्षी-गणों के दोष-प्रदर्शन में ही लग जायगा और इस प्रकार कोई सीमा निर्धारित नहीं हो सकती।"साक्ष्य देना आरम्भ कर देने पर विपक्षी या विरोधी दल साक्षी की अयोग्यता प्रदशित नहीं कर सकता; ऐसा करने पर वह दण्ड का भागी होता है। बहस्पति का कथन है कि यदि वादी द्वारा उपस्थित साक्षी के दोष को प्रतिवादी सिद्ध नहीं कर सकता तो उसे विवाद के धन के बराबर दण्ड देना पड़ता है (स्मृति चन्द्रिका २, पृ० ८३ एवं सरस्वतीविलास, पृ० १४३) ।
साक्ष्य देने के पूर्व साक्षी को जूते एवं पगड़ी उतारकर, दाहिना हाथ उठाकर तथा सोना, गोबर या कुश छुकर सत्य भाषण करने की शपथ लेनी पड़ती है (बृहस्पति) । वसिष्ठ एवं कात्यायन ने भी यही बात कही है। आपस्तम्बधर्मसूत्र (२।११।२६।७), कौटिल्य (३।११), मनु (८७६-८०), याज्ञ० (२।७३) आदि ने भी इस विषय में विभिन्न
७. प्रमाणस्य हि ये दोषा वक्तव्यास्ते विवादिना । गूढास्तु प्रकटाः सम्यः काले शास्त्रप्रदर्शनात् ॥ कात्यायन (अपराक, पृ० ६७१ में तथा स्मृतिचन्द्रिका २, पृ० ८३ में उद्धृत)। व्यवहारमयूख (पृ० ३६) का कहना है--"गूढाः शास्त्रप्रदर्शने साक्षिवादात्पूर्वकाले वक्तव्याः।"
८. साक्षिदोषाः प्रयोक्तव्याः संसदि प्रतिवादिना । पत्रेऽभिलेख्य तान् सर्वान् वाच्या प्रत्युत्तरंतु ते ॥ प्रतिपत्तो न साक्षित्वमर्हति तु कदाचन । अतोऽन्यथा भावनीयाः क्रियया प्रतिवादिना ।। अन्यस्तु साक्षिमिः साध्ये दूषणे पूर्वसाक्षिणाम् । अनवस्था भवेद्दोषस्तेषामप्यन्यसम्भवात् ॥ व्यास (स्मृतिचन्द्रिका २, पृ० ८३ एवं व्यवहारमयूख, पृ० ३८ में उद्धत)।
६. विहायोपानवुष्णीषं दक्षिणं बाहुमुद्धरेत् । हिरण्यगोशकृर्भान् समादाय ऋतं वदेत् ॥ बृहस्पति ; प्राङमुखोवस्थितः साक्षी शपथैः शापितः स्वकः॥हिरण्य...दर्भानुपस्पृश्य वदेदृतम् ॥ वसिष्ठ (सरस्वतीविलास, पृ० १५७, पराशरमाधवीय ३, पृ० ११२) ।
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