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धर्मशास्त्र का इतिहास गौतम (१३।६), कौटिल्य (३।११), मनु (८1७२), याज्ञ ० (२।७२), नारद (४११८८-१८६), विष्णुधर्मसूत्र (३।६), उशना (स्मृतिचन्द्रिका २, पृ० ७६),कात्यायन (३६५-३६६) ने इसी से स्पष्ट कहा है कि अर्थमूल या धनमूल (सिविल) विवादों में साक्षियों की कठिन जाँच आवश्यक है, किन्तु हिंसामूल (क्रिमिनल) विवादों में साक्षी-सम्बन्धी अयोग्यतानिर्धारण में शिथिलता प्रदर्शित करनी चाहिए। इसी से दासों एवं छिद्रान्वेषियों को भी, जो उपर्युक्त लम्बी सूची में साक्ष्य के लिए अयोग्य ठहराये गये हैं, गम्भीर हिंसामूलक मामलों में साक्ष्य के लिए उपयुक्त माना गया है। किन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि मुर्ख, पागल जैसे लोग भी साक्ष्य दे सकते हैं। मन (८७७) ने घोषित किया है कि लोभरहित केवल एक पुरुष साक्ष्य के योग्य ठहराया जा सकता है, किन्तु सच्चरित्र स्त्रियाँ नहीं, क्योंकि उनकी बुद्धि अस्थिर होती है। किन्तु कुछ परिस्थितियों, यथा--गृह के भीतर या जंगल में हुए या हत्या के मामले में स्त्री या अल्पवयस्क या अति बूढ़ा या शिष्य या सम्बन्धी, दास या किराये का नौकर भी योग्य साक्षी सिद्ध हो सकते हैं। यह कथन मनु (८७०) का ही है। ऐसा ही कात्यायन (३६७) ने भी कहा है। उशना (स्मृतिचन्द्रिका २, पृ० ७६ एवं व्यवहारप्रकाश, पृ० १२०) ने व्यवस्था दी है कि साहस के मामलों में दास, अन्धा, बहरा, कोढ़ी, स्त्री, अल्पवयस्क तथा अति बूढ़ा व्यक्ति भी साक्षी हो सकता है, बशर्ते वह किसी दल से सम्बन्धित न हो और न किसी का पक्षपात करनेवाला हो । नारद (४।१६०-१६१) का कथन है कि यद्यपि साहस के मामलों में साक्षी-सम्बन्धी बन्धन ढीले हो जाते हैं तथापि अल्पवयस्क (नाबालिग), स्त्री, एक ही व्यक्ति, वञ्चक, सम्बन्धी तथा शत्रु की साहस के विवादों में साक्षी नहीं बनाना चाहिए, क्योंकि अल्पवयस्क अबोधता के कारण, स्त्री असत्य भाषण के स्वभाव के कारण, वञ्चक बुरे कार्य में संलग्न रहने के कारण, सम्बन्धी स्नेह के कारण तथा शत्रु प्रतिशोध लेने के कारण झूठ का सहारा ले सकते हैं । मेधातिथि (मनु ८।६८) ने लिखा है कि जब वादी एवं प्रतिवादी दोनों पुरुष हों तो स्त्रियां साक्षी के उपयुक्त नहीं होती, किन्तु जहां विवाद किसी पुरुष एवं स्त्री में अथवा केवल स्त्रियों के बीच में हो तो स्त्री योग्य साक्षी होती हैं।
नारद (४११५७-१७२) के अनुसार अनुपयुक्त साक्षी-गण पांच कोटियों में बाँटे जा सकते हैं--(१) कुछ लोग, यथा--विद्वान् ब्राह्मण (श्रोत्रिय), अति बूढ़े, तापस, संन्यासी वचन (प्राचीन ग्रन्थों) के अनुसार अयोग्य ठहराये गये हैं, अन्यथा उनकी अयोग्यता के कोई अन्य कारण नहीं हैं। व्यवहारतत्त्व (प०२१४) ने प्रकट किया है कि श्रोत्रिय एवं अन्य लोग साक्षी नहीं बनाये जा सकते, किन्तु वे अकृत साक्षी (अर्थात् यदि वे चाहें तो किसी मामले में साक्षी होनं योग्य) हैं । वे राजा के समान ही अनुपयुक्त हैं, इसलिए नहीं कि वे विश्वसनीय नहीं है, प्रत्युत उन्हें कष्ट नहीं देना चाहिए। ऐसे लोग विशेषाधिकार वाले व्यक्ति कहे जाते हैं। (२) चोर, लुटेरे, भयानक लोग, जुआरी, हत्यारे अनुपयुक्त माने जाते हैं, क्योंकि उनमें असत्य भाषण का दोष पाया जाता है। (३) भेद के कारण भी साक्षी की अयोग्यता होती है, क्योंकि एक ही प्रकार के मामले में परस्पर विरोधी दो बातें करने से भेद नामक अयोग्यता प्रकट होती है। (४) सूची (= स्वयमुक्ति, नारद ४११५७), जो बिना बुलाये स्वयं चला आये, ऐसे लोग भी अयोग्य कहे जाते हैं। (५) (मतान्तर) अर्थात् ऐसा साक्षी जो पक्ष वाले की मृत्यु के उपरान्त लाया जाय, ऐसे लोग कुछ बताने में पूर्णतया समर्थ नहीं हो पाते, क्योंकि पक्ष की ओर से उन्हें पूरी सूचना नहीं प्राप्त हुई रहती। किन्तु अन्तिम कोटि के लिए नारद (४।६४)ने एक अपवाद दिया है कि जब मरते समय पिता पुत्रों से ऐसा कह कि “इन-इन मामलों में ये लोग साक्षी हैं" तो मतान्तर साक्षी भी योग्य माना जा सकता है।
__ नारद ने साक्षियों के दो प्रकार बताये हैं; कृत अर्थात् पक्ष द्वारा नियुक्त तथा अकृत, अर्थात् अनियुक्त। प्रथम के पाँच उपप्रकार हैं और दूसरे के छः । कृत साक्षी-गण ये हैं--(१) लिखित (२) स्मारित (जिसे लेखप्रमाण के बिना बार-बार स्मरण कराया जाय), (३) यदृच्छाभिज्ञ या यादृच्छिक अर्थात् जो लेन-देन के समय अचानक आ जाय और जिसे साक्षी बनने के लिए कह दिया जाय, (४) गुप्त साक्षी, अर्थात् वह जो परदे या दीवार की आड़ में बैठा
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