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धर्मशास्त्र का इतिहास
या मुख्य न्यायाधीश को अकेले साक्षी के रूप में स्वीकार किया है । व्यास का कथन है किविशेषतः साहस नामक अपराधों
एक व्यक्ति भी यदि वह शुचि, क्रियावान्, धार्मिक एवं सत्यवादी हो और पहले भी जिसकी सत्यता प्रमाणित हो चुकी
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हो, साक्षी का कार्य कर सकता है। कौटिल्य ( ३।११ ) का कहना है कि गुप्तरूप से लेन-देन के मामले में एक व्यक्ति भी ( स्त्री या पुरुष ) साक्षी हो सकता है, किन्तु राजा एवं तपस्वी ऐसा नहीं कर सकते । कात्यायन ( ३५३-३५५, व्यवहारमातृका पृ० ३१६- ३२०, स्मृतिचन्द्रिका २, पृ० ७६ एव व्यवहारप्रकाश पृ० ११२-११३ में उद्धृत) का मत है। कि प्रतिभूति ( धरोहर ) रखते समय किसी विश्वस्त व्यक्ति का साक्ष्य हो सकता है; इसी प्रकार उस दूत का भी साक्ष्य हो सकता है जो आभूषण उधार लेने के लिए भेजा गया हो; सामान बनाने वाली स्त्री का साक्ष्य भी पहचान के लिए हो सकता है; यदि निर्णय हो चुका हो तो राजा या मुख्य न्यायाधीश, लिपिक या कोई सभ्य अकेले भी वादी या प्रतिवादी के कथन की पुष्टि कर सकता है ।
साक्ष्य देने वालों की विशेषताओं का उल्लेख बहुत से ग्रन्थों में हुआ है, यथा - गौतम ( १३२), कौटिल्य ( ३1 ११), मनु (८।६२-६३), वसिष्ठ (१६।२८), शंख लिखित ( सरस्वतीविलास, पृ० १३८ में उद्धृत), याज्ञ० (२२६८), नारद (४।१५३-१५४), विष्णुधर्मसूत्र (८८), बृहस्पति, कात्यायन ( ३४७, स्मृतिचन्द्रिका २, पृ० ७६ एवं व्यवहारप्रकाश पृ० १११ में उद्धृत ) । प्रमुख विशेषताएँ ये हैं -- कुलीनता, वंशपरम्परा से देशवासी होना, सन्तानयुक्त गृहस् होना, धनी होना, चरित्रवान् होना, विश्वासपात्रता, धर्मज्ञता, लोभहीनता तथा दोनों दलों द्वारा स्वीकार किया जाना । कुछ स्मृतिग्रन्थों, यथा--- कौटिल्य ( ३।११), मनु ( दा६८ = कात्यायन ३५१ एवं वसिष्ठ १६ । ३० ), कात्यायन ( ३४८ ) ने व्यवस्था दी है कि सामान्यतः साक्षी को पक्ष के वर्ण या जाति का होना चाहिए, स्त्रियों के विवाद में स्त्रियों को ही साक्ष्य ( गवाही) देना चाहिए, अन्त्यजों के विवाद में अन्त्यजों को साक्ष्य देना चाहिए, हीन जातिवालों को उच्च जाति के लोगों ब्राह्मण को साक्षी बनाकर अपने मुकदमे की सिद्धि का प्रयत्न नहीं करना चाहिए (हाँ, जब ब्राह्मण किसी आगम में साक्षी रहा हो तो बात दूसरी है ) । किन्तु बहुधा सभी स्मृतियों ने ( यहां तक कि गौतम एवं मनु ने भी ) कहा है और विकल्प बतलाया है कि सभी जाति के लोग (यहां तक कि शूद्र भी ) सभी के लिए साक्षी हो सकते हैं। देखिये गौतम (१३।३), मनु (८/६६ ), याज्ञ० ( २२६६), नारद (४/१५४), वसिष्ठ (१६।२६ ) ; 'सर्वे सर्व एव वा । नारद (४| १५५) एवं कात्यायन (३४६-३५०, अपरार्क पृ० ६६६ में तथा व्यवहारप्रकाश, पृ० १११ ११२ में उद्धृत ) ने व्यवस्था दी है कि ऐसे लोगों के दलों में जो अपने लिए विशिष्ट चिह्न ( लिंग ) रखते हैं, श्रेणियों (वणिकों के समाजों), पूगों ( संस्थाओं ), व्यापारियों के व्रातों ( कम्पनियों) तथा अन्य लोगों में, जो दलों में रहते हैं और इस प्रकार वर्गों की संज्ञा पाते हैं, तथा दासों, चारणों ( भाटों), मल्लों (कुश्ती वालों), हाथी की सवारी करने वालों, घोड़ों को प्रशिक्षण देने वालों एवं सैनिकों (आयुधजीवियों, अर्थात् अस्त्र-शस्त्र धारण करके सैनिक रूप में जीविका चलाने वालों) में उनके नायक लोग ( वर्गी लोग ) उचित साक्षी कहे जाते हैं ।" गौतम ( ६ । २१ ) का कहना है कि खेतिहरों, व्यापारियों, चरवाहों, महाजनों
३. 'दूतक' वह है जो भद्र व्यक्ति हो और जिसे दोनों पक्षों ने स्वीकार किया हो और जो दोनों पक्षों की बात सुनने को उस स्थान पर आ गया हो ।
४. शुचित्रियश्च धर्मज्ञः साक्षी यत्रानुभूतवाक् । प्रमाणमेकोऽपि भवेत्साहसेषु विशेषतः । व्यास ( स्मृतिचन्द्रिका २, पृ० ७६ एवं व्यवहारप्रकाश, पृ० ११२ ) ।
५. रहस्यव्यवहारेष्वेका स्त्री पुरुष उपश्रोता उपद्रष्टा वा साक्षी स्याद्राजतापसवर्जम् । कौटिल्य ( ३।११) । ६. लिंगिनः श्रेणिपूगाश्च वणिग्वातास्तथापरे । समूहस्थाश्च ये चान्ये वर्गास्तानब्रवीद् गुरुः ॥ दासचारण
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