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अध्याय १३
साक्षी गण
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'साक्षी' शब्द श्वेताश्वतरोपनिषद् (६।११) में आया है जहाँ यह अखिल विश्व के एक मात्र द्रष्टा के लिए प्रयुक्त हुआ है।' पाणिनि (५।२।६१) ने इसका अर्थ किया है "वह जिसने साक्षात् देखा है ।२" गौतम (१३।१), कोटिल्य (३।११), नारद (४।१४७) का कथन है कि जब दो व्यक्ति विवाद करते हैं और जब सन्देह या कोई विरोध उपस्थित होता है तब सत्य का उद्घाटन साक्षियों द्वारा ही सम्भव है। मनु (८७४), सभापर्व (६८१८४), नारद (४११४८), विष्णुधर्मसूत्र (८।१३), कात्यायन (३४६, व्यवहारमातृका पृ० ३१७ एवं व्यवहारप्रकाश पृ० १६ में उद्धृत) के अनुसार वही साक्ष्य उचित है जो ऐसे व्यक्ति द्वारा दिया जाय जिसने या तो देखा हो या सुना हो, या विवाद या मामले में जिसने अनुभव प्राप्त किया हो। इसका तात्पर्य यह है कि माक्षी-प्रमाण साक्षात किया हआ या समक्ष वाला हो न कि सुना-सुनाया हो। मेधातिथि (मनु ८७४) का कथन है कि जब कोई किसी ऐसे व्यक्ति से, जिसने स्वयं सुना हो, कुछ सुनता है और आकर साक्ष्य देता है तो वह वैधानिक साक्ष्य नहीं कहा जाता। और देखिये मनु (८७६) किन्तु विष्णुधर्मसूत्र (८.१२) ने एक अपवाद दिया है-यदि नियुक्त साक्षी मर जाय या विदेश चला जाय तो उसने जो कुछ कहा हो उससे सुननेवाला साक्ष्य दे सकता है । यह पहले ही कहा जा चुका है कि राजा को साक्षी परीक्षा में देर नहीं करनी चाहिए । कात्यायन (३४०-३४१, अपरार्क पृ० ६७५, ६७७; स्मृतिचन्द्रिका २, पृ०६२ तथा व्यवहारमातृका पृ० ३३१ में उद्धृत)का कथन है कि स्वयं राजा (या मुख्य न्यायाधीश) को न्यायालय में उपस्थित साक्षी की जांच करनी चाहिए, सभ्यों के साथ उसके कथनों पर विचार करना चाहिए और जब किसी विवाद में वास्तविक साक्षी के विषय में सन्देह उत्पन्न हो जाय तो आगे का समय देखकर वास्तविक साक्षी को बुलाकर प्रमाण ग्रहण करना चाहिए और जब वास्तविक साक्षी मिल जाय तो मामला चलने देना चाहिए । कात्यायन (३५२)का कथन है कि जब विदेश में रहने के कारण साक्षी को बुलाना असम्भव हो तो किमी त्रिवेदज्ञ के समक्ष उसका दिया हुआ लिखित प्रमाण काम में लाना चाहिए गौतम (१३।२), मनु (८।६०), याज्ञ० (२०६६), नारद (४।१५३) आदि के मत से साधारणतः किसी मुकदमे में कम-से-कम तीन साक्षी होने चाहिए। बृहस्पति का कथन है कि साक्षियों की संख्या ६,७,५,४ या ३ हो सकती है अथवा केवल दो ही विद्वान ब्राह्मण पर्याप्त हैं। विष्णुधर्मसूत्र (८१५) एवं बृहस्पति ने बल देकर कहा है कि किसी विवाद के निर्णय में किसी एक ही साक्षी का सहारा नहीं लेना चाहिए। किन्तु याज्ञ० (२०७२), विष्णुधर्मसूत्र (८६) एवं नारद (४।१६२) का कथन है कि एक व्यक्ति भी, यदि वह नियमित रूप से धार्मिक कृत्य करता रहता हो और दोनों पक्षों को स्वीकार हो तो साक्षी का कार्य कर सकता है। बृहस्पति ने दूतक,गणक या उसे, जिसने अचानक साक्षात् देखा हो,गजा
१. एको देवः सर्वभूतेषु गूढः......साक्षी चेता केवलो निर्गुणश्च । श्वेताश्वतरोपनिषद् (६।११)। २. साक्षाद् अष्टरि संज्ञायाम् । पाणिनि (२०६१)।
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