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धर्मशास्त्र का इतिहास पा जायगा किन्तु वह भूमि के लाभसे हाथ धो देगा । मिताक्षरा, व्यवहारमातृका एवं व्यवहारप्रकाश (पृ०१५७-१६५) ने लम्बा विवेचन प्रस्तुत किया है, किन्तु स्थानाभाव से उसे हम यहां नहीं प्रस्तुत करेंगे।
कुछ थोड़े-से ग्रन्थों ने बहुत छोटी अवधियों की चर्चा की है,यथा अचल सम्पत्ति के लिए तीन वर्ष (यदि आज्ञापित उद्गम या क्षमालिंग न हो) या चल सम्पत्ति,जैसे अन्न,पशु आदि के लिए एक वर्ष की अवधि। ये मत केवल भोग की महत्ता मात्र प्रकट करते हैं। मरीचि का कहना है कि गायों,भारवाही पशुओं,आभूषणों आदि को चार या पाँच वर्ष के भीतर लौटा लेना चाहिए, नहीं तो उनके स्वामित्व की हानि हो जाती है । यह मत मनु (८।१४६)एवं अन्य ग्रंथों के विरोध में पड़ जाता है और इसकी व्याख्या इस प्रकार कर दी गयी है कि यह इसलिए दिया गया है जिससे स्वामी किसी शक्तिशाली कारण के न रहने पर अपनी वस्तुएँ शीघ्र से शीघ्र लौटा ले । प्राचीन रोम का कानून भी ऐसा ही था ।
बृहस्पति एवं कात्यायन (३३५) दोनों को उद्धृत करके अपराक (पृ० ६३७) एवं व्यवहार प्रकाश (पृ० १६६) ने कहा है कि जो सम्पत्ति किसी के अपने सम्बन्धियों एवं सजातियों द्वारा भोगी गयी है वह यों ही भोग के कारण उनकी नहीं हो सकती। पितामह का कहना है कि अजनवी का भोग शक्तिशाली होता है, किन्तु अपनी कुटुम्बसम्पत्ति का भोग उतना शवितशाली नहीं होता । गौतम (१२॥३५) का कथन है कि किसी श्रोत्रिय, संन्यासी या राजकर्मचारी द्वारा भोगी गयी सम्पत्ति देने वाले के स्वामित्त्व का लोप नहीं करती। सिलाइए बृहस्पति । मनु (८।१४६), नारद (४।८१), वशिष्ठ (१६।१८),याज्ञ०, बृहस्पति, कात्यायन (३३०)ने दीर्घकालीन भोग के नियम के सम्बन्ध में निम्नोक्त अपवाद दिये हैं;बंधक सम्पत्ति,सीमा,नाबालिग की सम्पत्ति,खुली प्रतिभूति, मुहरबन्द प्रतिभूति (धरोहर), स्त्रियां (दासियाँ), राजा का धन, श्रोत्रिय सम्पत्ति दूसरे के भोग से समाप्त नहीं हो जाती (बीस वर्ष या दस वर्ष तक जैसा कि मनु ८।१४७ एवं याज्ञ० २।२४ ने लिखा है)। मनु (८।१४५) ने व्यवस्था दी है कि बन्धक एवं प्रतिभूति (धरोहर) समय के व्यवधान से समाप्त नही हो जाते, बहुत लम्बे काल के उपरान्त भी उन्हें लौटाया जा सकता है। याज्ञ० (२१२५) ने उपर्युक्त सूची में मूों एवं स्त्रियों की सम्पत्ति की भी गणना कर दी है। नारद (४.८३) का कहना है कि यदि भोगकर्ता बिना किसी आगम (अधिकार) के भोग कर रहा हो तो स्त्रीधन एवं राज्य-सम्पत्ति संकड़ों वर्षों के उपरान्त भी लौटायी जा सकती है। कात्यायन (३३०) ने उपर्युक्त सूची में मन्दिर धन एवं पिता तथा माता से प्राप्त धन भी जोड़ दिया है। व्यवहारशास्त्र-सम्बन्धी सभी सिद्धांतों ने नाबालिगों, पागलों तथा इसी प्रकार के अन्य लोगों की सम्पति की रक्षा की है और उनकी अधिकार-हानि के लिए लम्बी अवधियाँ दी हैं। इस विषय में देखिये याज्ञवल्क्यस्मृति के २।२५ की टीका मिताक्षरा । कात्यायन (३३१।३३४), स्मृतिचन्द्रिका (२, पृ० ६६)तथा पराशरमाधवीय (३, पृ० १४८) ने व्यवस्था दी है कि उस ब्रह्मचारी की,जो ३६ वर्षों तक विद्याध्ययन में लगा हो तथा उस व्यक्ति की, जो ५० वर्षों तक विदेश में रहता आया हो, सम्पत्तियाँ भोगकर्ता द्वारा हड़प नहीं ली जा सकतीं। बन्दीगृह चले जाने पर बन्दी को भी समय की छूट मिलती है।
६. धर्मोऽक्षयः श्रोत्रिये स्याद भर्य स्याद् राजपूरुषे । स्नेहः सुहृद बान्धवेषु भुक्तमेतर्न होयते ॥ बृहस्पति स्मृतिचन्द्रिका २, पृ० ६६ एवं पराशरमाधवीय ३, पृ० १४६) ।
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