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________________ भोग सम्बन्धी कालावधियाँ ७३३ अनुसार केवल भोग का आश्रय लेने के लिए १०० वर्ष का स्वामित्व पर्याप्त है। स्मृतिचन्द्रिका (२, पृ०७२ ) ने १०० वर्ष के स्थान पर १०५ वर्ष अधिक युक्तिसंगत माना है, क्योंकि तीन पीढ़ियों ( नारद के अनुसार) तक के लिए प्रति- पीढ़ी को ३५ वर्षों तक चलना चाहिए और इस प्रकार १०० वर्ष के स्थान पर १०५ वर्ष होना चाहिए । विष्णुधर्मसूत ( 1 - १८७ ) एवं कात्यायन ( ३२७) ने लगातार तीन पीढ़ियों तक के भोग को चौथी पीढ़ी के लिए स्वामित्व का परिचायक माना है। इस विषय में और देखिये कात्यायन ( ३२१, याज्ञ० २।२७ की टीका मिताक्षरा द्वारा उद्धृत), अपरार्क ( पृ० ६३६), बृहस्पति ( २६-२८) आदि । "तीन पीढ़ियों तक" की अवधि संदिग्ध है । प्रपितामह, पितामह एवं पिता दस वर्षों के भीतर भी मर सकते हैं । ऐसी स्थिति में यदि पितामह गलत ढंग से किसी सम्पत्ति पर अधिकार कर ले और वह, उसका पुत्र तथा उसका पौत्र दस वर्षों के भीतर ही एक-दूसरे के पश्चात् स्वामित्व ग्रहण करके दिवंगत हो जायँ तो चौथी पीढ़ी वाला व्यक्ति अर्थात् प्रपौत्र यह कह सकता है कि तीन पीढ़ियों तक स्वामित्व स्थापित था और अब वह उस सम्पत्ति का वैधानिक रूप से स्वामी है। इसी से कात्यायन ने पृथक् रूप से अन्यत (३१८, अपरार्क पृ० ६३६ एवं व्यवहार प्रकाश पृ० १५५ द्वारा उद्धृत ) कहा है कि ६० वर्षों तक चलती हुई तीन पीढ़ियों का भोग स्थिर हो जाता है, अर्थात् उसे स्वामित्व का स्वतंत्र प्रमाण मिल जाता है । याज्ञ ० ( २०२७ ) के त्रिपुरुष - भोग या पूर्वक्रमागत भोग का भी यही अर्थ है । अस्मार्त काल ( मानव स्मरण से ऊपर) का भोग कात्यायन, व्यास आदि के अनुसार ६० वर्ष तक का माना जाता है। नारद ( अपरार्क, पृ० ६३६ ) के मत से भोग के सम्बन्ध में एक पीढ़ी २० वर्षों तक तथा बृहस्पति (स्मृतिचन्द्रिका, २, पृ०७२ ) के मत से ३० वर्षों तक चलती है। स्पष्ट है कि पूर्वकालीन स्मृतिकार, यथा- गौतम, मनु एवं याज्ञवल्क्य ने २० वर्षों तक के अवैधानिक भोग को स्वामित्व के लिए पर्याप्त माना है तथा उत्तरकालीन स्मृतियों के लेखकों, यथा - नारद, कात्यायन आदि ने ६० वर्षों के भोग को । इस विरोधाभास को दूर करने के लिए टीकाकारों एवं निबन्धकारों ने मनु ( ८ । १४८), याज्ञ ० ( २।२४) एवं अन्य स्मृतियों की बातों के विभिन्न अर्थ किये हैं । कम-से-कम तीन व्यवस्थाएँ अति प्रसिद्ध हैं। कुछ लोगों ने भोग पर बल दिया है तो कुछ लोगों ने आगम पर। अपरार्क ( पृ० ६३१६३२), कुल्लूक एवं रघुनंदन ने शाब्दिक अर्थ लिया है और कहा है कि २० वर्ष के नाजायज भोग से स्वामित्व की हानि हो जाती है अर्थात् स्वत्वहानि हो जाती है । दूसरी व्याख्या याज्ञ० (२।२४ ) के कथन की एक व्याख्या है; किसी व्यक्ति द्वारा बीस वर्षो तक भोग करने के उपरान्त यदि स्वामी विवाद खड़ा करता है और अपने पक्ष में लेखप्रमाण का सहारा लेता है तो वह अपना स्वामित्व नहीं भी सिद्ध कर सकता, क्योंकि उसके विपक्ष में यह तर्क उपस्थित किया जा सकता है। कि यद्यपि उसके पास लेखप्रमाण था किन्तु अपने मौन से उसने भोग करने वाले को अवसर दिया और मौनरूप से स्वीकृति भी दी । याज्ञवल्क्य के कहने का तात्पर्य यह है कि स्वामी को उपेक्षा नहीं दिखानी चाहिए और जब कोई अजनबी नाजायज भोग करता है तो उसे मौन नहीं रह जाना चाहिए। यह मत सर्वप्रथम विश्वरूप द्वारा घोषित किया गया और आजकल के सिद्धान्त " अपने अधिकारों के प्रति जागरूक रहना चाहिए" की ओर संकेत करता है । तीसरी व्याख्या या मत यह है जिसे मिताक्षरा ने स्पष्ट किया है और जिसे व्यवहारमयूख, मित्र मिश्र तथा अन्य लोगों ने भी माना है कि स्वामित्व की हानि नहीं होती, प्रत्युत फलहानि होती है, अर्थात् यदि स्वामी अपनी दृष्टि के समक्ष किसी अन्य व्यक्ति को २० वर्षों तक भोगते देखता है और अंत में विवाद खड़ा करता है तो वह अपनी सम्पत्ति कल्पयतीत्यनुमानेऽर्थापित वान्तर्भवतीति प्रमाणमेव । सरस्वतीविलास, पृ०१२४, ये वाक्य स्पष्टतः व्यवहारनिर्णय, पृ० ७३ से लिये गये हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002790
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size12 MB
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