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धर्मशास्त्र का इतिहास
एव मिताक्षरा तथा अन्य ग्रन्थों के अनुसार भी भोग स्थानान्तर के लिए सर्वथा अपरिहार्य नहीं माना जाता, किन्तु भोगरहित आगम त्रुटिपूर्ण होता है, अतः भोग पर अधिक बल दिया गया है और इसे कानून के अधिकतर अनुकूल माना गया है । मिताक्षरा के मत से निष्कर्ष यों है-
(१) जब भोग अपेक्षाकृत अल्प समय का होता है और उसका सहायक कोई आगम नहीं है तो भोग पर अधिक बल नहीं दिया जाता और आगम ही उसके विरोध में प्रबलतर सिद्ध होता है, (२) तीन पीढ़ियों तक का लगातार भोग ( यद्यपि उसे स्पष्ट करने के लिए कोई आगम न भी हो) लेख प्रमाण से युक्त आगम से प्रबलतर होता है तथा ( ३ ) तीन पीढ़ियों से कम भोग वाला पूर्वकालीन आगम ( किन्तु कुछ भोग होना चाहिए) उत्तरकालीन भोग सहित आगम से प्रबलतर होता है। दीर्घकालीन भोग को बहुधा वैधानिक उद्गम वाला समझा जाता था, यद्यपि समय के व्यवधान के कारण उसे सिद्ध करना सम्भव नहीं है। दीर्घकालीन भोग के विषय में बड़ा विवाद रहा है। याज्ञ० (२।२४ ) का कहना है-" भूमि की हानि २० वर्षों में हो जाती है, यदि उस पर उसके स्वामी की आंखों के समक्ष बिना उसके किसी प्रकार के विरोध के किसी अन्य व्यक्ति का भोग स्थापित हो; और चल सम्पत्ति की हानि ( उन्हीं दशाओं में ) दस वर्ष में हो जाती है ।" मनु ( ८।१४७- १४८) एवं नारद (४।७६-८०) के दो श्लोक समान ही हैं और उनका तात्पर्य है -- "किसी वस्तु का स्वामी यदि किसी प्रकार का विरोध न उपस्थित करे और कोई उसकी वस्तु का भोग करता रहे एवं यह दस वर्षों तक चलता रहे तो उसका स्वामित्व समाप्त है और उसकी सम्पत्ति पर उसकी दृष्टि के समक्ष किसी अन्य हो जाती है ।" यही बात गौतम ( १२।३४ ) में भी पायी जाता की अवधि दी है । उपर्युक्त कथनों से स्पष्ट है कि २० या १० वर्ष तक किसी व्यक्ति द्वारा वैधानिक ढंग से स्वामित्व स्थापित कर लेने पर वास्तविक स्वामी का अधिकार समाप्त हो जाता है और अवास्तविक व्यक्ति वास्तविक स्वामी बन बैठता है ।
जाता है । यदि स्वामी मूर्ख नहीं है और न नाबालिग व्यक्ति का भोग है तो अन्त में वह भोग वाले की ४ ( शंख, विवदरत्नाकर, पृ० २०८ ) ने भी दस वर्ष
किन्तु कुछ स्मृतियों के मत से सौ वर्षों तक अवास्तविक स्वामित्व स्थापन से आगम प्राप्त नहीं हो जाता, प्रत्युत स्वामित्व हानि के लिए अति दीर्घ अवधि अपेक्षित है। देखिये नारद (४८६-८७) । नारद (४)८६) ने यह भी कहा है कि भोग के लिए स्मार्त काल (मानव-स्मरण) के भीतर ही आगम अपेक्षित है, किन्तु स्मार्त काल के बाहर तीन पीड़ियों तक का भोग पर्याप्त है, भले ही उसके लिए लेखप्रमाण या कोई अन्य आगम न हो । यही बात विष्णुध मं सूत्र ( 1953 ) में भी कही गयी है । मिताक्षरा (याज्ञ० २।२७ ) के अनुसार स्मार्त काल १०० वर्षों का होता है, क्योंकि वेद ने मनुष्य जीवन की अवधि १०० वर्षों तक मानी है । १०० वर्षों तक साक्षियों के लिए भोग के विषय में कह देना सम्भव है। अतः स्पष्ट है कि सौ वर्षों से कम भोग के उद्गम के लिए मौखिक साक्ष्य लिया जा सकता है और भोगकर्ता को आगम सिद्ध करना पड़ेगा किन्तु यदि आगम के लिए कोई मौखिक साक्षी नहीं मिलेगा तो यह समझा जायगा कि आरम्भ से ही कोई आगम नहीं था । गौतम जैसे ऋषियों ने केवल भोग को ही स्वामित्व के लिए पर्याप्त साधन नहीं माना है। सरस्वती विलास ( पृ० १२४ ) में आया है कि दीर्घकालीन भोग से अनुमान लगाया जा सकता है कि इसका आरम्भ क्रय, दान आदि के आगम से हुआ होगा अर्थात् ऐसी स्थिति से वैधानिक उद्गम का आभास मिल जाता है। अतः मिताक्षरा के
४. अजडापोगण्डधनं दशवर्ष भुक्तं परैः सन्निधौ भोक्तुः ॥ गौतम ( १२।३४ ) ; ग्रामनगरवद्धश्रेणिविरोधे दशवर्ष भुक्तमन्यत्र राजविप्रस्वात् । शंख ( चण्डेश्वर का विवादरत्नाकर, पृ० २०८ ) ।
५. भुक्तिरपि कैश्चिद्विशेषणैर्युक्ता स्वत्वहेतुभूत क्रयदानादिकमव्यभिचारादनुमापयति । अन्यथानुपपद्यमाना
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