________________
सागम या निरागम मोग एवं भोग एक-दूसरे पर अवलम्बित हो जाते हैं । नारद (४७७) का कहना है कि आगम के पक्ष में लेखप्रमाण एवं साक्षियों के रहने पर भी भोग का अभाव, विशेषतः अचल सम्पत्ति के विषय में, उसे उपयुक्त नहीं ठहराता । इसका तात्पर्य यह है कि बिना भोग के स्थानान्तर, भले ही वह लिखित हो तथा साक्षीयुक्त हो, संशयात्मक माना जाता है; और आगम एवं भोग एक-दूसरे को बल देते हैं (नारद ४।८४-८६, बृहस्पति, हारीत एवं पितामह)। ३ नारद (४।८६-८७) का कथन है कि जो व्यक्ति बिना आगम के केवल भोग सिद्ध करता है उसे चोर कहना चाहिए, क्योंकि वह भोग-सम्बन्धी त्रुटिपूर्ण तर्क देता है (जैसा कि एक चोर भी कर सकता है); राजा को चाहिए कि वह ऐसे व्यक्ति को चोर का दण्ड दे जो बिना आगम के सौ वर्षों तक भोग करता है। कहने का तात्पर्य यह है कि भोग करने वाले व्यक्ति को उसकी वैधानिकता सिद्ध करनी चाहिए, उसे यह बताना चाहिए कि भोग का उद्गम उसके वंश में त्रुटिपूर्ण ढंग से नहीं हुआ। प्राचीन काल में स्वामित्व के स्थानान्तर की मुख्य विधि भोग से सम्बन्धित थी और भोग पर ही स्वामित्व की सिद्धि के लिए अधिक बल दिया जाता था।
याज्ञवल्क्य स्मृति (२।२७) की टीका मिताक्षरा ने इस स्थिति को और स्पष्ट किया है। दान एवं क्रय के विषय में स्थानान्तर करने वाले का स्वामित्व (भोग) समाप्त हो जाना चाहिए और दान पाने वाले तथा क्रय करने वाले के स्वामित्व (भोग) का उदय होना चाहिए ; किन्तु यह तभी होना चाहिए जब कि दान लेने वाला तथा क्रय करने वाला सम्पत्ति को स्वीकार कर ले, अन्यथा नहीं । स्वीकृति मानसिक, वाचिक एवं शारीरिक होती है, अर्थात् स्वीकार करने वाले को मन से स्वीकृति देनी चाहिए, कहकर स्वीकार करना चाहिए तथा वास्तविक रूप में ग्रहण करना चाहिए। ये तीनों सोना, वस्त्र आदि चल सम्पत्ति के विषय में लागू होती है। किन्तु खेत के मामले में शरीर-स्वीकृति सम्भव नहीं होती जब तक उसके फल एवं लाभ का उपभोग नहीं होता । अतः दान एवं क्रय को पूर्ण करने के लिए थोड़ा-बहुत भोग का होना परमावश्यक है। स्पष्ट है कि भोग के अभाव में आगम शक्तिहीन हो जाता है । किसो भोग करने वाले के विरोध में आगम सफल हो सकता है जब कि उसके पास आगम का अधिकार न हो। इतना ही नहीं, जो तीन पीढ़ियों तक भोग का अधिकारी नहीं रहा है उसके विरोध में भी आगम सफल हो सकता है । यदि भोगकर्ता तीन पीढ़ियों तक के स्वामित्व को सिद्ध कर देता है तो वह भोगहीन किन्तु आगम वाले के विरोध में सफल हो जाता है। याज्ञ० (२।२३) के अनुसार यदि यह सिद्ध हो जाय कि एक व्यक्ति ने श्री क से कुछ क्रय किया, किन्तु स्वामित्व या भोग नहीं प्राप्त किया और आगे चलकर किसी अन्य व्यक्ति ने श्री क से क्रय किया और स्वामित्व भी प्राप्त कर लिया (किन्तु वह कालावधि तक लगातार भोग न कर सका) तो पूर्व का आगम भोग हित होने पर भी उत्तरकालीन आगम मे अच्छा माना जायगा। किन्तु यदि यह सिद्ध हो सके कि कौन-सा आगम पूर्वकालीन है और कौन-सा उत्तरकालीन, तो भोगकर्ता को ही सिद्धि प्राप्त होती है ।जहाँ लगातार तीन पीढ़ियों तक स्वामित्व स्थापित रहता है वहाँ किसी प्रकार का आगम बलहीन हो जाता है।अत
३. पिञ्यलब्धक्रयाधानरिक्थशौर्यप्रवेदनात् । प्राप्ते सप्तविधे भोगः सागमः सिद्धिमाप्नुयात् ॥ बृहस्पति (व्यवहारनिर्णय, पृ० १२६, व्यवहारप्रकाश, पृ० १५३;न मूलेन बिना शाखा अन्तरिक्ष प्ररोहति । आगमस्तु भवेन्मलं भुक्तिः शाखा प्रकीर्तिता ॥ हारीत; नागमेन विना भुक्तिनागमो भुक्तिवजितः । तयोरन्योन्यसम्बन्धात् प्रमाणत्वं व्यवस्थितम् ॥ पितामह (दोनों स्मृतिचन्द्रिका २, पृ० ७० एवं सरस्वतीविलास, पृ० १३१ में उद्धृत हैं)। व्यवहारनिर्णय ने, जिसने त्रिपुरुषभोग को ६० वर्ष के बराबर माना है, आगम एवं मोग के बल को इस प्रकार व्यक्त किया है। आविशतावागमप्राबल्यं भोगस्य तदानुगुण्यात् । द्वितीये भोगागमयोः साम्यम् । तृतीये भुक्तेः प्राबल्यम् । चतुर्थे पुरुषे पञ्चांगभोग एक प्रमाणं नागमापेक्षेति सिद्धम् । पृ० १३२ ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org