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________________ अध्याय १२ भुक्ति (भोग) गौतम (१०३६) के मत से स्वामित्व की प्राप्ति कई प्रकार से होती है, यथा-पैतृक रिक्थप्राप्ति (वसीयत), क्रय, विभाजन (बँटवारा), आत्मसात्करण (विनियोग, अर्थात् जंगल के वृक्ष आदि तथा अन्य वस्तुओं की प्राप्ति जब कि उनका कोई स्वामी न हो) तथा उपलब्धि (स्वामी के ज्ञात न रहने पर छूटी हुई सम्पत्ति पर स्वाधिकार या उसका आत्मसात्करण)। गौतम (१०।४०-४१) के अनुसार स्वामित्व की अतिरिक्त रीतियां भी हैं, यथा--दानग्रहण (ब्राह्मणों के विषय में), विजय (क्षत्रियों के विषय में) तथा लाभ (वैश्यों या शूद्रों के विषय में ; व्यापार या पारिश्रमिक के रूप में)। वसिष्ठ (१६११६) ने स्वामित्व की अपर आठ रीतियाँ घोषित की हैं। बृहस्पति (व्यवहारप्रकाश पृ० १५३, अपरार्क पृ०६३५) ने अचल सम्पत्ति के सात रूप माने हैं--विद्या, क्रय, बंधक, विजय, दहेज, वसीयत तथा सन्तानहीन सम्बन्धी की सम्पत्ति। नारद (स्मृतिचन्द्रिका २, पृ०७०) ने इस सूची में बन्धक छोड़ दिया है। इन स्मृतियों ने चिरकाल से चली आती हुई प्राप्ति (आधिपत्य) को स्वामित्व की कोटियों में नहीं गिना है। मोग या भुक्ति के विषय में (समय-निर्धारण एवं स्वामित्व-प्राप्ति से सम्बन्धित अन्य बातों के बारे में)प्राचीन काल से ही स्मृतिकारों एवं निबन्ध कारों में बड़ा मतभेद रहा है । भुक्ति सागमा (साधिकार) या अनागमा दोनों प्रकार की हो सकती है। आगम का अर्थ है 'उद्गम' या 'निकास', अर्थात् अधिकार, स्वामित्व या स्वत्व का मूल, यथा--क्रय या दान-प्राप्ति आदि।' इसी अर्थ में मनु (८।२००), याज्ञ० (२।२७), नारद (४।८४) ने अपनी बातें कही हैं । और देखिये कात्यायन (३१७)। यदि सम्पत्ति उपर्युक्त रीतियों में किसी एक रीति से ग्रहण की गयी है और उस पर स्वामित्व भी है तो यह अधिकार लुप्त नहीं हो सकता (नारद ४१८५; बृहस्पति, स्मृतिचन्द्रिका २, पृ०७० में उद्धृत); किन्तु बिना स्पष्ट स्वामित्व या भोग के वह सम्पत्ति पक्की नहीं भी हो सकती ।व्यास एवं पितामाह ने घोषित किया है कि उपयुक्त भोग के लिए पांच बातें आवश्यक हैं--इसके पीछे आगम (स्वत्व-प्रमाण) होना चाहिए, दीर्घकाल से उसे चलते आना चाहिए, वह टूट न सका हो, उसका विरोध न हुआ होतथा वह विरोधी की जानकारी में भी स्थिर रहा हो (मिताभरा, याज्ञ० २।२७ एवं अपरार्क पृ० ६३५) । वह आगम जो थोड़े से भी भोग से हीन है, शक्तिशाली नहीं माना जाता, किन्तु वंशपरम्परा से न आने पर भी स्वामित्व वाला आगम शक्तिशाली ठहरता है (याज्ञ० २।२७) । नारद (४॥८५)का कथन है कि स्पष्ट आगम से भोग शक्तिशाली होता है। इन कथनों से कठिनाई उत्पन्न होती है और आगम १. स्वत्वहेतुः प्रतिग्रहक्रयादिः आगमः । मिताक्षरा (याज्ञ० २।२७); आ सम्याग्गम्यते प्राप्यते स्वीक्रियते येन स आगमः कयादिरिति व्यवहारमातृका । आगमः साक्षिपत्रादिकमिति दीपकलिका । आगमो धनार्जनोपायः क्याविरिति मैथिलाः । व्यवहारतत्त्व, पृ० २२३। २. सागमो दीर्घकालश्चाविच्छेदोऽपरवोज्झितः । प्रत्याथिसंनिधानश्च पञ्चाङ्गो भोग इष्यते ।। स्मृतिचन्त्रिका (२, पृ० ७१) द्वारा उवृत। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.002790
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size12 MB
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