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________________ आलेख्य-प्रकार ७२६ शत्रु आदि के विषय में समाचार देना), प्रतिलेख (किसी से प्राप्त सन्देश पर राजा से विचार-विमर्श कर उत्तर देना) तथा सर्वत्रग (यात्रियों के कल्याण के लिए राजकर्मचारियों को आज्ञा देना)। जानपद लेख के कई प्रकार होते हैं; बृहस्पति (अपराकं पृ०६८३, स्मृतिचन्द्रिका २, पृ० ६०) के अनुसार सात, व्यास (स्मतिचन्द्रिका २,५०५६) के अनमार आठ प्रकार है। स्मतिचन्द्रिका का कहना है कि इसके अ भी सम्भव हैं, अत: किसी विशिष्ट संख्या पर बल देना ठीक नहीं है। बृहस्पति, कात्यायन ( २५४-२५७)तथा अन्य लोगों ने जानपद लेखों का विवरण दिया है-भाग या विभागपत्र (बँटवारे का लेखप्रमाण), दानपत्र, क्रयपत्र (सेलडीड), आधानपत्र (बंधकपत्र), स्थितिपत्र या संक्त्पित्र (किसी ग्राम,नगर या श्रेणी, प्रग आदि के सदस्यों द्वारा निर्णीत परम्पराओं का लेखप्रमाण), दासपत्र (भोजन-वस्त्र के अभाव से गुलामी करने का लेखप्रमाण), ऋणलेख या उद्धारपत्र (ब्याज के साथ भविष्य में किसी तिथि तक लौटा देने वाले ऋण का लेख), सीमापत्र (तय हो जाने पर सीमा-निर्धारण का लेख), विशद्धिपत्र (शद्धि हो जाने पर साक्षियों के साथ लिखा गया लेख), सन्धिपत्र (अपराध स्वीकति पर विशिष्ट लोगों की उपस्थिति में समझौते का लेख), उपगत (ऋण दे देने पर मिली रसीद), अन्वाधिपत्र (बंधक रखने वाले की ओर से लिखा गया पत्र) । निजी तौर से लिखा गया प्रमाणपत्र (जानपद) दो कोटियों का होता है:चिरक और चिरकहीन । चिरक वह प्रमाणपत्र है जिसे पुश्तैनी लिपिक लिखते हैं। ये पुश्तैनी लिपिक राजधानी में रहते हैं और उनके पास दोनों पक्ष के लोग साक्षियों, पिताओं के हस्ताक्षर के साथ पहुंचते हैं इस विषय में देखिये, संग्रह (स्मृति बन्द्रिका २, पृ०५६; परशारमाधवीय ३, पृ० १२७; शुक्र० २।२६६-३१८, ४१।१७२-१७७) । व्यास (स्मति चन्द्रिका २, पृ० ५६) के अनुसार जानपद के आठ प्रकार हैं; चिरक, उपगत ( रसीद), स्वहस्त (अपने हाथ से लिखित पत्र ) आधिपत्र, क्रयपत्र, स्थितिपत्र, सन्धिपत्र, तथा विशद्धिपत्र । कछ ग्रन्थों में 'चीरक' एवं 'चिरक' दोनों प्रकार के प्रयोग हुए हैं। लगता है, यह पत्र भोजपन की छाल (भोज ण भूर्ज के पत्न) या किसी अन्य वृक्ष की छाल पर लिखा जाता था। यदि यह शब्द चिरक है तो यह 'चिर' से बना होगा. क्योंकि यह राजा द्वारा नियक्त लिपिकों द्वारा लिखित होता था और चिर काल तक चलता था। इस अर्थ में चिरक शब्द 'स्थान कृत' के समान ही है। नारद (४।१३६), विष्णुधर्मसूत्र (७।११) एवं कात्यायन के अनुसार वही लेख-प्रमाण अखंड्य या सिद्ध माना जाता है जो देशाचार के विरुद्ध न हो, जो नियमानकल लिखित हो और हो संदेहहीन एवं अर्थयुक्त शब्दों से पूर्ण । स्मति चन्द्रिका (२,५०५६) के अनसार उसे पञ्चारूढ होना चाहिए, अर्थात् उस पर ऋणी, ऋणदाता. दोसाक्षियों एवंलिपिक के हस्ताक्षर हों । सामान्यतः दो साक्षियों का होना आवश्यक माना गया है,किन्तु अति महत्वपूर्ण लेख-प्रमाणों पर दो से अधिक साक्षियों का होना आवश्यक है। यदि साक्षी आसव या मद पीने वाला हो, अपराधी या स्त्री हो, नाबा या बीमार या पागल हो या बलपूर्वक लिख रहा हो तो लेख-प्रमाण उचित नहीं माना जाता । देखिये नारद(४।१३७), विष्णुधर्मसूत्र (७।६-१०), कात्यायन (२७१) । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002790
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size12 MB
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