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________________ ७२८ धर्मशास्त्र का इतिहास तक सम्भव हो इन्हें टाल देना चाहिए। किन्तु यदि मनाने पर वे न मानें तो उनके झगड़ों का निपटारा होना ही चाहिए। ऐसे मुकदमे श्रेयस्कर नहीं माने जाते, प्रत्युत वे निन्दा के योग्य ठहरते हैं । निरर्थक विवादों को दोषयुक्त कहा गया है। स्वल्प अपराध या स्वल्प अर्थ वाले विवाद निरर्थक कहे जाते हैं (बृहस्पति, जैसा कि सरस्वतीविलास पृ० ८७ एवं स्मृतिचन्द्रिका २, पृ० ३७ में उद्धत है)। ___ जव भाषापाद (प्लैण्ट) अन्तिम रूप पकड़ लेता है तब प्रतिवादी वादी की उपस्थिति में लिखित रूप से उत्तर देता है या प्रतिपक्ष उपस्थित करता है (याज्ञ ०२।७ एवं नारद २।२)। इसके लिए प्रतिवादी को समय मिलता है । प्रतिपक्ष स्पष्ट, विरोधरहित शब्दों से गुम्फित होना चाहिए । उत्तर या प्रतिपक्ष के चार प्रकार होते हैं; मिथ्या (पक्ष या भाषापाद को न स्वीकार करना), सम्प्रतिपत्ति या सत्य (भाषापाद को स्वीकार कर लेना), कारण या प्रत्यवस्कन्दन (सकारण उत्तर देना या विकल्प देना) तथा प्राङन्याय या पूर्वन्याय (पूर्व निर्णय उपस्थित करना)। शासकीय आलेख्य प्रमाण-पत्र कई प्रकार के होते थे । विष्णुधर्मसूत्र (७२) में इसके तीन प्रकार हैं--(१) वह जो राजा के समक्ष लिखा जाय (अर्थात् राजकर्मचारियों के सम्मुख लिखा हुआ),(२) वह जिस पर साक्षियों के हस्ताक्षर हों तथा (३) वह जो बिना साक्षियों के हस्ताक्षर का हो। प्रथम प्रकार आजकल के रजिस्टर्ड डाकूमेण्ट के समान था। बृहस्पति (व्यवहारप्रकाश पृ० १४१ एवं व्यवहारमयूख पृ० २४) ने भी तीन प्रकार बतलाये हैं, यथा-राजकीय लेख्यप्रमाण (राज्यलेख्य), किसी निश्चित स्थान पर लिखा हुआ (स्थानकृत) तथा अपने हाथ का लिखा हुआ (स्वहस्त-लिखित)। नारद (४।१३५) ने केवल दो प्रकार दिये हैं-स्वहस्त-लिखित एवं दूसरे के हाथ से लिखित ; जिनमें प्रथम प्रकार विना साक्ष्य के भी प्रमाणयुक्त माना जाता है, किन्तु दूसरे पर साक्ष्य होना आवश्यक माना जाता है । संग्रह के लेखक, मिताक्षरा (याज्ञ० २१८४)आदि ने प्रमाण-पत्रों को दो भागों में बाँटाहै: राजकीय एवं जानपद । इन दोनों में प्रथम तो पब्लिक और दूसरा प्राइवेट कहा जा सकता है । व्यवहारमयूख (पृ० २४) के मत से लौकिक एवं जानपद पर्यायवाची हैं । जानपद लेख प्रमाण दो प्रकार का होता है-स्वहस्त-लिखित तथा अन्य हस्तलिखित, जिनमें प्रथम के लिए साक्षियों के प्रमाण की आवश्यकता नहीं है, किन्तु दूसरे पर साक्षियों का प्रमाण अनिवार्य है। मिताक्षरा (याज ०२।२२) में दो प्रकार हैं ; शासन एवं चिरक । शासन याज्ञ० (१।३१८-३२०) द्वारा वर्णित राजकीय ही है तथा चिरक जानपद के समान है। याज्ञ ० (२१८६) की टीका में मिताक्षरा का कथन है कि राजकीय लेखप्रमाण सुन्दर संस्कृत में लिखित होना चाहिए, किन्तु साधारण जनता द्वारा प्रस्तुत लेखप्रमाण (डीड) जनभाषा या स्थानीय भाषा में भी प्रस्तुत किया जा सकता है। राजकीय लेखप्रमाण तीन प्रकार के होते हैं; शासन (राजकीय भूमि अर्थात् राजा द्वारा दी गयी भूमि का ब्यौरा) अर्थात् राजप्रदत्त भूमि का पत्रक, जयपत्र (किसी मुकदमे की जीत का फैसला), प्रसाद-पत्र(बहादुरी के इनाम एवं भक्तवत्सलता पर राजा द्वारा दिये गये पुरस्कार का लेखप्रमाण )। वसिष्ठ (स्मृतिचन्द्रिका २, पृ०५५ एवं व्यवहारमयूख पृ०२८) ने राजकीय लेखप्रमाण के चार स्वरूप बताये हैं- शासन, जयपत्र, आज्ञापत्र (सामन्तों तथा अन्य कर्मचारियों को दी गयी आज्ञाएँ) तथा, प्रज्ञापनापत्र (यज्ञ कराने वालों, पुरोहित,गुरु,वेदज्ञ ब्राह्मणों तथा अन्य श्रद्धास्पद लोगों के लिए लिखित प्रार्थना)। सरस्वतीविलास (पृ०१११-११३) में पाँच प्रकार बताये गये हैं--शासन, जयपत्र, आज्ञापत्र, प्रज्ञापनापत्र तथा प्रसादपत्र । कौटिल्य (२।१०) ने कई प्रकार की राजाज्ञाओं के नाम दिये है ; प्रज्ञापना (किसी की प्रार्थना का आवेदन), आज्ञापत्र, परिदान (सुपात्र को समादर या विपत्ति में भेंट), परिहार (राजा द्वारा कुछ जातियों अथवा ग्रामों की मालगुजारी या कर की माफी करना), निसृष्टिलेख (वह लेख जिसके द्वारा राजा किसी विश्वासपात्र व्यक्ति की क्रियाओं अथवा शब्दों को अपना लेता है), प्रावृत्तिक (किसी होने वाली घटना की सूचना या Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002790
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size12 MB
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