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________________ न्याय कार्य विधि; चार पाद आदि शुल्क या फीस यह बात ध्यान में रखने योग्य है कि प्राचीन भारत में मारपीट या फौजदारी के विवादों में कोई न्यायालय-शुल्क नहीं देना पड़ता था । जो अपराधी सिद्ध होता था उसे स्मृतियों द्वारा निर्धारित एवं निर्णीत दण्ड भरना पड़ता था । यही बात माल के विवादों में भी लागू होती थी और आरम्भ में कुछ भी नहीं देना पड़ता था । कौटिल्य ( ३।१), याज्ञ०, , विष्णुधर्मसूत्र, नारद आदि के कुछ नियमों द्वारा यह प्रकट होता है कि विवाद के निर्णय के उपरान्त कुछ ऐसा धन देना पड़ता था जिसे हम न्यायालय शुल्क की संज्ञा दे सकते हैं। मनु (८५६ एवं १३६) ने भी इस विषय में नियम दिये हैं । और भी देखिए, याज्ञ० (२१३३, १७१ एवं १८८ ) तथा कौटिल्य ( ३19 ) | आजकल न्यायालय-शुल्क आदि इतना अधिक है और विवाद निर्णय में इतना अधिक समय लगता है कि वादी एवं प्रतिवादी नष्टप्राय हो जाते हैं। आजकल उचित रसीदी टिकट न लगने पर आवेदन अस्वीकृत हो जाते हैं। प्राचीन भारत में इस विषय में सुविधाएँ प्राप्तथों और विवादों के निर्णय में अधिक समय नहीं लगता था । इस विषय में देखिए, कौटिल्य ( ३1१ ), मनु ( ८1५८ ), याज्ञ० (२1१२), नारद (१1४५), पितामह (स्मृतिचन्द्रिका २, पृ० ४२ ) जहाँ विवाद के स्थगन आदि के समय की ओर संकेत है । गौतम (१३।२८-३०), अपराकं ( पृ० ६१६), स्मृतिचन्द्रिका ( २, पृ० ४२), पराशर माधवीय ( ३, पृ० ६६-७२ ) ने विवाद - स्थगन के विषय में नियम दिये हैं। देरी करने से न्याय की मृत्यु हो जाती है । ३४ ७२७ किसी भी मुकदमे का अनुक्रम निम्नलिखित प्रकार का है - सर्वप्रथम वादी, अर्थी या अभियोक्ता अपना आवे - दन प्रस्तुत करता है; तब प्रतिवादी, प्रत्यर्थी या अभियुक्त प्रत्युत्तर उपस्थित करता है। इन दोनों क्रियाओं के उपरान्त न्यायालय के सदस्य विचार-विमर्श करते हैं और इसके उपरान्त न्यायाधीश बोलता है । ( कात्यायन १२१, अपरार्क पृ० ६११, पराशरमाधवीय ३, पृ० ५८ ) । ये ही चार पाद कहे जाते हैं। इन्हीं को याज्ञ० (२२६-८ ) एवं बृहस्पति ने भाषापाद (ब्लैण्ट), उत्तरपाद ( प्रत्युत्तर ), क्रियापाद ( साक्षी या प्रमाण उपस्थित करना) तथा साध्यसिद्ध या निर्णय के नामों से पुकारा है । कात्यायन (३१) ने इन्हें क्रम से पूर्वपक्ष, उत्तर, प्रत्याकलित एवं क्रिया कहा है । प्रत्याकलित का अर्थ है प्रमाण या साक्षी के विषय में सभ्यों के बीच विचार-विमर्श । यदि कई आवेदन एक साथ उपस्थित हो जाते हैं तो वर्ण के क्रम से उनपर विचार होता है, अर्थात् सर्वप्रथम ब्राह्मण के आवेदन पर विचार होता है (मनु ८२४) । कौटिल्य ' (१।१६) ने यह क्रम दिया है - मन्दिर या मूर्ति, संन्यासी, वेदज्ञ ब्राह्मण, पशु एवं तीर्थस्थान, नाबालिग, बूढ़े, रोगग्रस्त या विपत्तिग्रस्त या असहाय एवं स्त्री के मुकदमे इसी क्रम से देखे जाने चाहिए, या जिसकी अत्यधिक गुरुता हो । किन्तु कात्यायन (१२२ ) ने उस विवाद को प्राथमिकता दी है जिसमें अपेक्षाकृत अधिक अनिष्ट हो अथवा जो सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण सिद्ध हो। इस विषय में और देखिए कौटिल्य ( ३।२० ) । सभी प्रकार के भाषापाद नहीं भीं उपस्थित हो सकते थे । समय, स्थान, द्रव्य आदि के स्पष्ट विवरण के अभाव बहुत से दावे विचार के विषय नहीं बन सकते थे । देखिए कात्यायन ( १३६, अपराकं पृ० ६०६), मिताक्षरा (याज्ञ० २।६) एवं पराशरमाधवीय (३,६१ ) | नारद (२८) ने भी भाषापाद ( प्लैण्ट ) के दोष गिनाये हैं और उनकी व्याख्या की है (२।६-१४) । बृहस्पति ने लिखा है कि गुरु-शिष्य, पिता-पुत्र, पति-पत्नी तथा स्वामी सेवक के बीच मुकदमे नहीं हो सकते । किन्तु इसका तात्पर्य यह नहीं है कि इन जोड़ियों में मुकदमे नहीं होते, भाव केवल इतना ही है कि जहाँ Jain Education International ३४. न कालहरणं कार्यं राज्ञा साधनदर्शने । महान् दोषो भवेत्कालाद् धर्मव्यापत्तिलक्षणः । दद्याद्देशानुरूपं तु कालं साधनदर्शने । उपाधि वा सभोक्ष्यैव देवराजकृतं सदा । शुक्र० ४।५।१६७ एवं २०६ । यही बात कात्यायन (३३६) में भी पायी जाती है (स्मृतिचन्द्रिका २, पृ० ६२, व्यवहारमातृका, पृ० ३०६, सरस्वतीविलास, पृ० १४८ ) | For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002790
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size12 MB
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