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न्यायालय के प्रकार
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पुरुष या साध्यपाल ही है। न्यायाधीश मुकदमों के विषय में पूछताछ करते थे । मुख्य न्यायाधीश श्रेष्ठी तथा कायस्थ से वादी के मुकदमे की महत्त्वपूर्ण बातें लिख लेने को कहता था । कोई भी व्यक्ति (जो रिश्तेदार नहीं होता था) किसी हत्या का समाचार ला सकता था । बूढ़े तथा अन्य सम्मानित व्यक्ति आसन ग्रहण कर सकते थे । न्यायालय के पास ही मन्त्री, दूत, गुप्तचर, एक हाथी, एक अश्व ( समाचार लाने के लिए, यथा-- मरा हुआ व्यक्ति कथित स्थान पर है कि नहीं ) एवं कायस्थ लोग रहते थे । परिस्थितिजन्य साक्षी मिल जाने पर अपराधी से अपराध स्वीकार करने को कहा जाता था, ऐसा न करने पर उसे कोड़ा मारा जा सकता था, न्यायाधीश को निर्णय की घोषणा करनी पड़ती थी और तदनुकूल दण्ड विधान करना होता था एवं राजा को उचित दण्ड के विषय में अन्तिम निर्णय देना पड़ता था । मनुस्मृति को ही सर्वोच्चता प्राप्त थी । ब्राह्मण अपराधी को फाँसी का दण्ड नहीं मिलता था, किन्तु उसे धन के साथ निष्कासित किया जा सकता था । कुछ राजा इस नियम का पालन नहीं भी करते थे । चांडाल फाँसी देते थे । अग्नि, जल, विष एवं तुला द्वारा निर्दोषिता सिद्ध की जा सकती थी, किन्तु साक्षियों एवं परिस्थितिजन्य बातों की पुष्टि के रहते इन विधियों का सहारा नहीं भी लिया जा सकता था ।
ऊपर जिस न्यायालय का वर्णन हुआ है यह सबसे बड़ा न्यायालय था । स्मृतियों एवं निबन्धों में अन्य न्यायालयों का वर्णन भी मिलता है । याज्ञ० (१।३०) एवं नारद ( १७ ) का कहना है कि मुकदमों का फैसला कुलों (गाँव की पंचायतों), श्रेणियों, सभाओं ( पुगों ) तथा गणों द्वारा भी होता था । उच्च से निम्न न्यायालयों का क्रम यों था- राजा, न्यायाधीश, गण, पूग, श्रेणी एवं कुल। इन शब्दों की व्याख्या के लिए देखिए मेधातिथि (मनु ८२), मिताक्षरा एवं व्यवहारप्रकाश ( पृ० २६), स्मृति चन्द्रिका, अपरार्क, मनु ( ७।११६ पर कुल्लूक ) गुप्त संवत् १२४वाला दामोदरपुर पत्रक. एपि अँफिया इण्डिका १५, पृ० १३०), एपिफिया इण्डिका ( १७, पृ० ३४८ ), व्यवहारमातृका ( पृ०२८०), स्मृतिचन्द्रिका २, पृ०१८ ), पराशर माधदीय ( ३, पृ० ३५२ ) आदि । मेधातिथि के अनुसार 'कुलानि' का अर्थ है 'रिस्तेदारों का दल', कुछ लोग इसते 'मध्यस्थ पुरुष' समझते हैं। 'गण' का अर्थ है 'गृह निर्माण करने वाले या मठों में रहने वाले ब्राह्मण।' मिताक्षरा एवं व्यवहार प्रकाश ( पृ० २६ ) के मत से 'कुलानि' का तात्पर्य है 'रिस्तेदारों, एक ही कुल के लोगों एवं सम्बन्धियों या मुकदमेबाजों की सभा या संघ ।' स्मृतिचन्द्रिका के मत से इसका अर्थ है 'दलों (मुकदमा लड़ने वाले दलों) के कुटुम्ब (एक ही कुल या खानदान) के लोग । अपरार्क के अनुसार इसका अर्थ है 'कृषिकर्म करने वाले' । यह भी सम्भव है कि 'कुलानि' का तात्पर्य उन राजकर्मचारियों से हो, जो आठ या दस ग्रामों पर शासन करते थे और उन्हें वेतन के रूप में भूमि से उत्पन्न उपज का एक कुल प्राप्त होता था । मनु ( ७ ११६), मनु के टीकाकार कुल्लूक एवं दामोदरपुर पत्रक (गुप्त संवत् १२४ ) के अनुसार 'विषयपति' अर्थात् जिले के मालिक को 'नगरश्रेष्ठी', 'प्रथमकुलिक' एवं 'प्रथम कायस्थ' (एपिफिया इण्डिका १५, पृ० १३० ) सहायता देते थे । इस विषय में और देखिए एपिग्रैफिया इण्डिका, १७, पृ० ३४५ एवं ३४८ जहाँ कुमारगुप्त प्रथम के शासनकाल में 'ग्रामाष्ट कुलाधिकरणम्' नामक वाक्यांश के प्रयोग का उल्लेख मिलता है । चन्द्रगुप्त द्वितीय (गुप्त संवत् ६३ अर्थात् ४१२-१३ ई० सन् ) के साँची वाले शिलालेख से प्रकट होता है कि 'पंचायत' को उन दिनों 'पंचमण्डली' (गुप्ताभिलेख, पृ० २६, ३१ ) कहा जाता था । बहुत-से टीकाकारों के मत से 'श्रेणी' का अर्थ है वह संघ या समुदाय जो एक ही प्रकार की वृत्ति ( पेशा ) या शिल्प करने वालों का हो, यथा-घोड़ों का व्यापार करने वालों, बरइयों (पान बेचने वालों), जुलाहों, खाल बेचने वालों का संघ । जीमूतवाहन कृत व्यवहारमातृका ( पृ० २८० ) के अनुसार 'श्रेणी' शिल्पकारों एवं व्यापारियों का संघ है। 'पूरा' एक ही ग्राम या बस्ती में रहने वाली विभिन्न जातियों एवं विभिन्न वृत्तियाँ करने वालों के समुदाय को कहते हैं । कात्यायन ( २२५ एवं ६८२ ) ने 'गण' एव 'पूरा' में भेद किया है और उन्हें क्रम से 'कुलों का संघ' तथा 'व्यापारियों का संघ' कहा है। व्यवहारप्रकाश ( पृ० ३० ) ने 'गण' एवं 'पूरा' को एकार्थक ( पर्याय) माना है ।
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