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________________ ७२२ धर्मशास्त्र का इतिहास में उद्धृत) के अनुसार राजप्रासाद के पूर्व में न्यायालय होना चाहिए और उसका मुख पूर्व ओर होना चाहिए । न्यायकक्ष भाँति-भाँति के फूलों, मूर्तियों, चित्रों, देवमूर्तियों आदि से सुसज्जित होना चाहिए, उममें धूप, बीज, अग्नि, जल आदि रखे रहने चाहिए ।२६ सभा को धर्माधिकरण या केवल अधिकरण ( मृच्छकटिक, ६ एवं कादम्बरी, ८५) कहा जाता था। इसे धर्मस्थान या धर्मासन या सदस् भी कहा गया है (वसिष्ठ० १६।२) । कादम्बरी (८५) ने राजप्रासाद का वर्णन किया है, जहाँ न्यायालय होता था, जिसमें धर्माधिकारी लोग बेंत के उच्च आसन पर बैठते थे। न्यायालय के कार्य का समय प्रातःकाल होता था (मन ७।१४५, याज्ञ०१।३२७) । कौटिल्य का कहना है कि राजा को दिन के दूसरे भाग में जनता के मामलों को देखना चाहिए और इसीलिए उसने दिन को आठ भागों में बाँटा है । यही बात दशकुमारचरित में भी पायी जाती है (८, पृ० १३१)। कात्यायन के अनुसार प्रात: साढ़े सात बजे से दोपहर तक का समय उचित माना गया है । उसने भी दिन को आठ भागों में बाँटा है (६१-६२) । छुट्टियों के दिन न्याय-कार्य नहीं होता था, यथा--अष्टमी, चतुर्दशी, पूर्णिमा तथा अमावस्या के दिनों में । बृहस्पति के अनुसार सभा के दस अग थे-- राजा, राजा द्वारा नियुक्त मुख्य न्यायाधीश, सभ्य, स्मृति, गणक (एकाउण्टेण्ट), लेखक, सोना, अग्नि, जल तथा स्वपुरुष (साध्यपाल) । मुख्य न्यायाधीश व्यवहार (कानून) का उद्घोष करता है ; राजा दण्ड देता है; सभ्य लोग मामलों की जांच करते हैं; स्मृति अर्थात् धर्मशास्त्र निर्णय, हार एवं दण्ड की विधि बताता है; सोना एवं अग्नि शपथ के लिए होते हैं, जल प्यास लगने पर पीने के लिए होता है, गणक धन या मामले के विषय की गणना करता है; लिपिक (लेखक) कार्यवाही लिखता हैं, यथा--कथनोपकथन, निर्णय आदि; पुरुष सभ्यों,प्रतिवादी, साक्षियों को बुलाता है और जमानत न देने वाले वादी एवं प्रतिवादी की देख-रेख करता है। सभा के दस अंगों को कम से सिर, मुख, बाह, हाथ, जंघाएं (गणक एवं लेखक), आंखें (सोना एवं जल), हृदय एवं पैर कहा गया है (बहस्पति, व्यवहारप्रकाश. पृ० ३१; हारीत, राजनीति रत्नाकर, पृ० २०) । न्याय-कक्ष में राजा पूर्वाभिमुख बैठता है, सभ्य, गणक एवं लेखक क्रम से उत्तर, पश्चिम एवं दक्षिण में बैठते हैं। कुछ ग्रंथों में राजा एवं मुख्य न्यायाधीश की गणना नहीं की गयी है और सभा के केवल आठ अंग कहे गये हैं (सरस्वती विलास, पृ० ७२) । मुख्य न्यायाधीश; सभ्य एवं विद्वान् ब्राह्मण लोग वृद्ध व्यक्ति होते थे (नारद, १८; उद्योगपर्व ३२५८)। प्राचीन भारतीय व्यवहार पद्धति का परिचय मृच्छकटिक नाटक (अंक ६) में मिल जाता है। इस नाटक का काल ईसा के उपरान्त चौथी या पाँचवी शताब्दी माना जाता है । इस नाटक में वणित बातों की तुलना नारद, बृहस्पति एवं कात्यायन की बातों से की जा सकती है, क्योंकि ये स्मृतिकार उक्त नाटक-काल के आसपास ही हुए थे । सामान्य बातें बहुत अंशों में मिलती हैं, केवल छोटी-मोटी बातों में ही कुछ हेर-फेर पाया जाता है । बातें निम्नोक्त हैं। न्यायालयकक्ष को अधिकरण कहा जाता था; मुख्य न्यायाधीश का नाम अधिकरणिक था; उसे श्रेष्ठो (प्रसिद्ध व्यापारी एवं वणिक लोग) एवं कायस्थ सहायता देते थे; इन तीनों को अधिकृत या नियुक्त (राजा द्वारा नियुक्त) भी कहा जाता था; यदि राजा निरंकुश होता था तो न्यायाधीश को स्थिति डावाँडोल रहती थी, वह उसकी इच्छा पर निर्भर रहता था। एक भृत्य होता था जो आसन ठीक करता था और मुकदमेबाजों की टोह लेता था। यह भृत्य शास्त्रों में वणित २६. माल्यधूपासनोपेतां बीजरत्नसमन्विताम् । प्रतिमालेल्यदेवश्च युक्तामग्नयम्बुना तथा ।। बृहस्पति (राजधर्मकाण्ड, पृ० ३०), स्मृतिचन्द्रिका २, पृ० १६ एवं व्यवहारनिर्णय, पृ० ५१ । सम्भवतः ऐसे ही प्रतिमा-चित्रसुशोभित कक्ष का वर्णन कुन्दमाला नामक नाटक में आया है । देखिए कादम्बरी (८५)-अधिकरणमण्डपगतश्चार्यवेषरत्युच्च वेत्रासनोपविष्टधर्ममयरिव धर्माधिकारिभिर्महापुरुषैरधिष्ठितम् (राजकुलम्) । www.jainelibrary.org For Private & Personal Use Only Jain Education International
SR No.002790
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size12 MB
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