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________________ धर्मशास्त्र का इतिहास राजा अन्तिम न्यायकर्ता था और उसके नीचे का न्यायालय उसके द्वारा नियुक्त न्यायाधीशों का न्यायालय था । बृहस्पति का कहना है कि साहस नामक मामलों के अतिरिक्त सभी प्रकार के मुकदमों का फैसला कुल, श्रेणी एवं गण कर सकते थे, किन्तु निर्णयों को कार्यान्वित करने का अधिकार राजा को ही प्राप्त था । ३० पितामह ( स्मृतिचन्द्रिका २, पू० १६, पराशरमाधवीय ३, पृ० ४२ ) ने तीन प्रकार के न्यायालयों की ओर संकेत किया है, किन्तु याज्ञ० एवं नारद ने दो न्यायालयों की चर्चा की है; (१) मुख्य न्यायाधीश का न्यायालय एवं ( २ ) स्वयं राजा का न्यायालय । पितामह ने लिखा है - ग्राम में किया गया निर्णय नगर में पहुँचता है और नगर वाला निर्णय राजा के पास जाता है; राजा का निर्णय गलत है या सही, वही अन्तिम होता है । ३१ बृहस्पति ने स्पष्ट लिखा है कि 'सभ्य' लोग कुलों (कुलानि ) तथा अन्य लोगों से श्रेष्ठ होते हैं, मुख्य न्यायाधीश सभ्यों से तथा राजा सबसे श्रेष्ठ होता है । उपर्युक्त न्यायालयों के अतिरिक्त कौटिल्य ने ग्रामिक (ग्रामकूट) का भी नाम लिया है। ग्रामिक लोगों को ग्राम से चोरी या मिलावट करने वालों (३|१० ) को बाहर कर देने का अधिकार था, और वे छोटे-मोटे अपराधों को देख सकते थे ( ग्रामकूटमध्यक्षं वा सत्ती ब्रूयात् आदि, ४१४) । स्मृतिचन्द्रिका ( २,१०१८ ) में उद्धृत भृगु के मत तथा अन्य निबन्धों के मत से पता चलता है कि सामान्य लोगों के लिए दस प्रकार के न्यायालय थे - - ग्राम-जन, राजधानी के नागरिकों की सभा, गण, श्रेणि, चारों वेदों या विद्याओं (आन्वीक्षिकी आदि) के पण्डित, 'वर्गों वाले' लोग, कुल, कुलिक, राजा द्वारा नियुक्त न्यायाधीश एवं स्वयं राजा । 'वर्ग वाले' लोगों के दल में गणों, पूगों, व्रातों, श्रेणियों आदि के लोग सम्मिलित रहते थे । 'कुलिक' लोग वादी एवं प्रतिवादी के कुलों के श्रेष्ठ जन होते थे । दामोदरपुर पत्रक (एपिग्रैफिया इण्डिका, १५ पृ० १३० ) में धृतिमित नामक 'प्रथम कुलिक' का उल्लेख हुआ है । राजा को स्मृतियों के अनुसार ही झगड़ों का निर्णय करना होता था । उसे वर्गों एवं १८ हीन जातियों (मनु ८।४१ एवं हारीत) के कर्तव्यों एवं परम्पराओं पर ध्यान देना पड़ता था । वर्णाश्रमों के अतिरिक्त अठारह हीन जातियों के नाम पितामह द्वारा गिनाये गये हैं-- रजक (धोबी), चर्मकार, नट, बुरुड (बाँस के सामान बनाने वाली जाति), कैवर्त (केवट या मछुआ ), म्लेच्छ, भिल्ल, आभीर, मातंग तथा अन्य नौ जातियाँ ( इनके नाम नहीं दिये जा रहे हैं, क्योंकि पितामह की स्मृति में उपलब्ध यह अंश अशुद्ध रूप में प्राप्त है ) । उपर्युक्त न्यायालय- कोटियाँ प्राचीन एवं मध्यकालीन भारत में सदा एक समान नहीं पायी जाती थीं । किन्तु एक बात स्पष्ट है कि राजा द्वारा नियुक्त मुख्य न्यायाधीश तथा स्वयं राजा के न्यायालय सदैव पाये जाते रहे हैं । अन्य न्यायालय- कोटियों के विषय में परम्पराओं में अन्तर पाया जाया था । ७२४ न्याय कार्यविधि मनु (८।२३) के अनुसार राजा को भली भाँति सज्जित हाकर, शांत रूप से न्यायालय में आना पड़ता था और देवों एवं आठ दिक्पालों को प्रणाम करने के उपरान्त न्याय सम्बन्धी कार्य करना होता था । न्याय- कार्य के चार स्तर ३०. वाग्दण्डो धिग्दमश्चैव विप्रायत्तावुभौ स्मृतौ । अर्थदण्डवधावुक्तौ राजायत्तावुभावपि ॥ राज्ञां ये विदिता सम्यक्कुलश्रेणिगणादयः । साहसन्यायवर्ज्यानि कुर्युः कार्याणि ते नृणाम् ॥ बृहस्पति (स्मृतिचन्द्रिका २, २०; पराशरमाधवीय ३, पृ० ३२; सरस्वतीविलास, पृ० ६८; व्यवहारसार, पृ० २२ ) । ३१. ग्रामे दृष्टः पुरं यायात्पुरे दृष्टस्तु राजनि । राज्ञा दृष्टः कृदृष्टो वा नास्ति तस्य पुनर्भवः ॥ पितामह (स्मृतिचन्द्रिका २, पृ० १६, पराशरमाधवीय ३, पृ० ४२) । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002790
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size12 MB
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