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धर्मशास्त्र का इतिहास
याज्ञ ०
स्पति (स्मृतिचन्द्रिका २, पृ० १५ ) के मत से सभ्यों की संख्या ७, ५ या ३ हो सकती है । सभ्य भी प्रमुखतः ब्राह्मण ही होते थे, किन्तु क्षत्रिय एवं वैश्य भी नियुक्त हो सकते थे । मनु ( 5199 ) एवं बृहस्पति का कहना है जब किसी सभा में मुख्य न्यायाधीश के साथ वेद में पारंगत तीन ब्राह्मण बैठते हैं तो वह ब्रह्मा की सभा या यज्ञ के समान है। (२/२), विष्णुधर्मसूत्र ( ३।७४ ), कात्यायन (५७), नारद ( ३।४-५ ), शुक्र० (४-५।१६-१७ ) तथा अन्य ग्रन्थकारों के अनुसार सभ्यों के गुण-शील ये हैं - वेदज्ञ होना, धर्मशास्त्र में पारंगत होना, सत्यवादी होना, मित्रामित्र के प्रति पक्षपात रहित होना, स्थिर होना, कार्यदक्ष होना, कर्त्तव्यशील होना, बुद्धिमान होना, वंशपरम्परा से चला आना, अर्थशास्त्र में पारंगत होना आदि । ३६ ग्रन्थकारों ने राजा एवं सम्यों में पक्षपातरहित होने के गुण पर बहुत बल दिया है ( देखिए, वसि० १६।३-५, नारद १३४, ३।५ ) । जो लोग देशाचारों से अनभिज्ञ होते थे, नास्तिक होते थे, शास्त्रों में पारंगत नहीं होते थे, घमण्डी, क्रोधी, लोभी एवं दरिद्र होते थे उन्हें सभ्य नहीं बनाया जाता था। राजा द्वारा नियुक्त एवं सभ्यों से युक्त प्राड्विवाक को न्यायालय कहा जाता था । हमने ऊपर देख लिया है कि राजा मुख्य न्यायाधीश सभ्यों एवं ब्राह्मणों के साथ न्यायकक्ष में प्रवेश करता था । । सभ्य लोग राजा द्वारा नियुक्त होते थे, अन्य ब्राह्मण धर्मशास्त्रों में पारंगत होते थे, किन्तु वे अनियुक्त होते थे, केवल कठिन बातों में न्यायधीश लोग उनकी बातों का सम्मान करते थे। सभी प्रकार के ब्राह्मणों को न्यायालय में बोलने का अधिकार नहीं था, केवल धर्मशास्त्रपारंगत ब्राह्मण ही कठिन कठिन बातों पर अपनी सम्मति दे सकते थे । मनु ( ८1१-१४) का कहना है कि या तो व्यक्ति को सभा में जाना ही नहीं चाहिए, यदि वह सभा में प्रवेश करे तो उचित बात उसे कहनी ही चाहिए; वह व्यक्ति, जो सभा में उपस्थित रहने पर भी मौन रहता है या झूठ बोलता है, पाप का भागी होता है । जहाँ कुछ या सभी सभ्यों की सम्मति के रहते हुए राजा द्वारा न्याय नहीं हो पाता वहाँ सभी राजा के साथ पाप के भागी होते हैं । यदि राजा अन्याय कर रहा हो तो सभासदों का कर्त्तव्य है कि वे राजा को क्रमशः न्यायपक्ष की ओर ले आयें ( कात्या० स्मृतिचन्द्रका २, पृ० २१ में तथा राजनीतिरत्नाकर पृ० २४-२५ में उद्धृत ) । ब्राह्मणों के कर्तव्य की इतिश्री धर्मशास्त्रों में वर्णित नियमों को कह देने में है, वे सभ्यों के समान राजा को न्यायपक्ष की ओर लाने के अधिकारी नहीं हैं। सभा में उपस्थित अन्य लोगों को न्यायकार्य में किसी प्रकार की सम्मति देने का अधिकार नहीं है । किन्तु विद्वान् ब्राह्मण लोग अनियुक्त होने पर भी न्याय के विषय में अपनी राय दे सकते हैं, ऐसा नारद एवं शुक्र का कहना है । २७ नारद ( ३।१७ ) का कहना है कि सभी सभ्यों को एकमत होकर निर्णय देना चाहिए, तभी वादियों एवं प्रतिवादियों में किसी प्रकार की शंका नहीं रहेगी । व्यवहारप्रकाश ( पृ० २७) ने जैमिनीयसूत्र (१२/२/२२ ) का अनुसरण करते हुए कहा है कि बहुमत को मान्यता मिलनी चाहिए। अपरार्क ( पृ०५६६) की व्याख्या के अनुसार गौतम (११।२५ ) का कहना है कि यदि न्यायाधीशों में मतभेद हो तो राजा को अन्य विद्याओं में पारंगत होने के साथ तयी में विज्ञ लोगों से सम्मति लेनी चाहिए और मामले को अन्तिम रूप से तय कर देना चाहिए। कात्यायन ( ५८-५६ ) का कहना है कि अच्छे कुल वाले, श्रेणी वाले, अच्छे चरित्र
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२६. स तु सभ्यैः स्थिरैर्युक्तः प्राज्ञमौलं द्विजोत्तमैः । धर्मशास्त्रार्थकुशलं रर्थशास्त्रविशारवैः । कात्या०, मिताक्षरा द्वारा उद्धृत (याज्ञ० २।२), व्यवहारमयूख, पृ० २७५, स्मृतिचन्द्रिका २, पृ० १५; अलुब्धा धनवन्तश्च धर्मज्ञाः सत्यवादिनः । सर्वशास्त्रप्रवीणाश्च सभ्याः कार्या द्विजोत्तमाः ॥ कात्या० ( अपरार्क द्वारा उद्धृत, पृ० ६०१ ), राजनीतिरत्नाकार पृ० २३ । सभ्यगुणों को जानकारी के लिए देखिए शान्तिपर्व ( ८३।२) ।
२७. नियुक्तो वानियुक्तो वा धर्मज्ञो वक्तुमर्हति । देवीं वाचं स वदति यः शास्त्रमुपजीवति ॥ नारद ३।२ (शुक्र ४।५।२८ ) ।
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