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________________ न्यायाधीश, सभ्य आदि ७१६ वृक्ष की लाठी लेकर बाल बिखेरे हुए दौड़कर राजा के पास पहुँचकर अपना पाप स्वीकार करना चाहिए और राजा से दण्ड माँगना चाहिए । राजा को ऐसी स्थिति में गदा या लाठी से अपराधी को मारना चाहिए । अपराधी उस चोट से मर जाय या जीवित रहे; वह पाप से मुक्त हो जाता है । राजा ही न्याय की सबसे बड़ी कचहरी या अदालत था । इस विषय में कई उदाहरण राजतरंगिणी काव्य में भी मिलते हैं ( ६ । १४-४१, ६।४२-६६, ४।४२ - १०८) । यदि अन्य आवश्यक कामों के कारण राजा न्याय कार्य देखने में अपने को असमर्थ पाये तो उसे तीन सभ्यों के साथ किसी विद्वान् ब्राह्मण को इस कार्य में लगा देना चाहिए। इस विषय में देखिए, मनु ( ८1६ - १० ), याज्ञ० (२३), कात्यायन आदि । न्यायाधीश के गुणों का वर्णन बहुधा मिलता है । आपस्तम्बधर्मसूत्र ( २।११।२६-५ ) के अनुसार न्यायाधीशों में विद्या, कुलीन वंशोत्पत्ति, वृद्धावस्था, चातुर्य तथा धर्म के प्रति सावधानी होनी चाहिए। नारद के अनुसार न्यायाधीश को अठारहों सम्पत्ति विवाद-सम्बन्धी कानूनों में, उनके ८००० उपभेदों, आन्वीक्षिकी (तर्क आदि ) वेद एवं स्मृतियों में पारंगत होना चाहिए। जिस प्रकार वैद्य ( शल्य चिकित्सा में पारंगत होने के कारण ) शल्य-प्रयोग से शरीर में घुसे लोहे के टुकड़े को निकाल लेता है, उसी प्रकार कुशल न्यायाधीश को पेचीदे मामले में से धोखे की बातें अलग निकाल लेनी चाहिए । २५ इस विषय में और देखिए, कात्यायन, मुच्छकटिक नाटक ( ६।४) एवं मानसोल्लास ( २२, श्लोक ६३।६४ ) । न्यायाधीश को प्राड्विवाक् या कभी-कभी धर्माध्यक्ष ( राजनीतिरत्नाकर, पृ०१८ ) या धर्मप्रवक्ता (मनु ८२० ) या धर्माधिकारी ( मानसोल्लास २।२, श्लोक ६३) कहते थे । 'प्राड्विवाक' अति प्राचीन नाम है (गौतम १३।२६, २७ एवं ३१, नारद १।३५, बृहस्पति ) । 'प्राड्' शब्द 'प्रच्छ' धातु से बना है और 'विवाक' 'वाक्' से; क्रम से इनका अर्थ है ( मुकदमेबाज़ों से ) प्रश्न पूछना तथा (सत्य) बोलना या (सत्य का ) विश्लेषण करना इसी प्रकार 'प्रश्नविवाक' शब्द बना है । 'प्रश्नविवाक' शब्द वाजसनेयी संहिता एवं तैत्तिरीय ब्राह्मण में आया है। स्पष्ट है कि अति प्राचीन काल में भी न्याय संबन्धी बातें कार्यकारिणी एवं अन्य राजनीतिक बातों से पृथक् अस्तित्व रखती थीं । प्रमुख न्यायाधीश प्रायः कोई विद्वान् ब्राह्मण ही होता था (मनु ८६, याज्ञ० २। ३ ) । कात्यायन (६७) एव शुक्र० (४।५।१४ ) ने व्यवस्था दी है कि यदि कोई विद्वान् ब्राह्मण न मिले तो प्रमुख न्यायाधीश के पद पर धर्मशास्त्रों में पारंगत किसी क्षत्रिय या वैश्य को नियुक्त करना चाहिए, किन्तु राजा को इस पर ध्यान देना चाहिए कि कोई शूद्र इस पद का उपयोग न कर सके । मनु (८।२०) ने यहाँ तक कहा है कि भले ही अविद्वान् ब्राह्मण इस पद पर नियुक्त हो जाय, किन्तु शूद्रधर्माध्यक्ष कभी भी न होने पाये, यदि कोई राजा शूद्र को नियुक्त करेगा तो उसका राज्य उसी प्रकार नष्ट हो जायगा जिस प्रकार कीचड़ में गाय फँस जाती है। यही बात व्यास ( सरस्वती विलास में उद्धृत, पृ० ६५) ने ही है | मनु ( ८1१०-११ ), याज्ञ० (२३), नारद ( ३३४) एवं शुक्र ० ( ४/५/१७ ) के अनुसार कम-से-कम तीन समयों ( प्यूनी जजों) की नियुक्ति करनी चाहिए जो प्रमुख न्यायाधीश से सहयोग कर सकें। कौटिल्य ( ३|१) ने लिखा है कि धर्मस्थीय ( कचहरियों) में धर्मस्थ नामक तीन न्यायाधीशों की नियुक्त करनी चाहिए । इन न्यायाधीशों को अमात्य की शक्ति प्राप्त थी और इनकी कचहरियां प्रान्तों की सीमाओं में तथा दस ग्रामों के समूह ( संग्रहण) के लिए, जनपद ( द्रोणमुख या ४०० ग्रामों) के लिए और प्रान्तों (स्थानीय या ८०० ग्रामों) के लिए अवस्थित थीं । बृह २५. विवादे विद्याभिजनसम्पन्ना वृद्धा मेधाविनो धर्मोष्वविनिपातिनः । आप० घसूत्र (२।११।२६।५) । अष्टादशपदाभिशस्तद्भँदाष्टसहस्रवित् । आन्वीक्षिक्यादिकुशलः श्रुतिस्मृतिपरायणः । यथा शल्यं भिषक्कायाबुद्धरेद् यन्त्रयुक्तभिः । प्राड्विवाकस्तथा शल्यमुद्धरेव् व्यवहारतः ॥ नारद (स्मृतिचन्द्रिका २, पृ० १४ में उद्धृत) । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002790
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size12 MB
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