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________________ ७१८ धर्मशास्त्र का इतिहास ऐसा रूढ़िगत हो गया था कि कालिदास ने भी इसको ओर संकेत किया है (देखिए मालविकाग्निमित्र, अंक १, 'सर्वज्ञस्याप्येकाकिनो निर्णयाभ्युपगमो दोषाय')। रघुवंश (१७.३६) में आया है कि राजा अतिथि धर्मस्थ के साथ विवादनिर्णय किया करता था ।२० पितामह का कथन है कि विधिज्ञ होने पर भी अकेले निर्णय नहीं देना चाहिए।२१ शुक्र० (४।५।६-७) का कहना है कि राजा, न्यायाधीश या सभ्यों को एकान्त में विवाद नहीं सुनना चाहिए, क्योंकि पक्षपात के पांच कारण हो सकते हैं; राग (क्रोध), लोभ, भय, द्वेष तथा एकान्त में वादियों की बातें सुनना।२२ न्याय-सम्बन्धी कार्य दो विभागों में बँटे थे ; व्यवहार (कानून) एवं वास्तविकता, अर्थात् कानून-सम्बन्धी एवं तथ्य-सम्बन्धी । वास्तविकता या वस्तु से सम्बन्धित बातों के निर्णय के लिए नियमों का निर्धारण असम्भव है। तथ्यों के विषय में निर्णय देने के लिए राजा तथा न्यायाधीश को बहुत बड़ी परिधि मिली थी। इसी से धर्मशास्त्रों में ऐसा आया है कि राजा तथा न्यायकर्ता को पक्षपातरहित होना चाहिए और उसे एकान्त में नहीं, प्रत्युत जनता के सम्मुख राग-भय-लोभ आदि से रहित होकर न्याय करना चाहिए; और अकेले नहीं प्रत्युत मन्त्रियों, विद्वान् ब्राह्मणों एवं सभ्यों के साथ निर्णय देना चाहिए। कानून-सम्बन्धी मामलों में राजा या न्यायाधीश को धर्मशास्त्र के नियमों के अनुसार चलना चाहिए (मनु ८।३, याज्ञ० २।१, नारद १।३७, शुक्र० ४।५।११), किन्तु जहाँ कानून मौन हो, राजा को देश की परम्परागत रूढियों के अनुसार निर्णय देना चाहिए । कात्यायन ने धर्मशास्त्र द्वारा निर्धारित नियमों के विरोध में नियम बनाने अथवा निर्णय देने वाले राजाओं को सावधान किया है । २३ शुक्र० (५।५।१०-११) ने भी ऐसा ही कहा है । पितामह ने कहा है कि बहुत-सी बातों में राजा का निर्णय ही प्रमाण माना जाता है ।२४ राजा निर्णय किस प्रकार करता था, इस विषय में गौतम (१२।४०-४२) एवं मनु (८।३१४-३१६) द्वारा निर्धारित नियम द्रष्टव्य है। यदि कोई चोर ब्राह्मण के घर सोने की चोरी करे तो उसे हाथ में लोहे की गदा या खदिर २०. स धर्मस्थसखः शश्वदथिप्रत्यर्थिनां स्वयम् । ददर्श संशयच्छेदान्व्यवहारानतन्द्रितः ।। रघुवंश १७॥३६। न्यायाधीश या जज के लिए यहाँ धर्मस्थ शब्द प्रयुक्त हुआ है। कौटिल्य (३३१) ने भी यही शब्द लिखा है । रघुवंश के विस्तृत अनुशीलन से ऐसा लगता है कि कालिदास ने अर्थशास्त्र का ध्यानपूर्वक अनुशीलन किया था। २१. 'तस्मान्न वाच्यमेकेन विधिज्ञानापि धर्मतः।' इति पितामहेन एकस्य धर्मकथननिषेधात् । सरस्वतीविलास, पृ०६७। २२. नकः पश्येच्च कार्याणि वादिनोः शृणुयाद्वचः । रहसि च नृपः प्रज्ञः सभ्याश्चैव कदाचन ॥ पक्षपाताधिरोपस्य कारणानि च पञ्च वै । रागलोभभय द्वेषा वादिनोश्च रहःश्रुतिः ।। शुक्र० ४।२६-७। २३. अस्वा लोकनाशाय परानीकभयावहा । आयुर्बोजहरी राज्ञां सति वाक्ये स्वयंकृतिः ॥ तस्माच्छास्त्रानुसारेण राजा कार्याणि कारयेत् । वाक्याभावे तु सर्वेषां देशदृष्टेन तन्नयेत् ।। कात्या० (अपराकं द्वारा पृ० ५६६ में, स्मतिचद्रिका द्वारा २, पृ० २५-२६ में, पराशरमाधवीय द्वारा ३, पृ० ४१ में उद्धृत)। यही बात शुक्र० (४।५।१०-११) ने भी कही है--यस्य देशस्य यो धर्मः प्रवत्तः सार्वकालिकः । श्रुतिस्मृत्यविरोधेन देशदृष्टः स उच्यते ॥ देशस्यानुमतेनैव व्यवस्था या निरूपिता। लिखिता तु सदा धार्या मुद्रिता राजमुद्रया ।। कात्यायन (स्मृतिचन्द्रिका २, प० २६, पराशरमाधवीय ३, पृ० ४१ में उद्धत) । "देशदृष्टः" के लिए देखिए मनु (८।३)! २४. यत्र चैते हेतवो न विद्यन्ते तत्र पार्थिववचनान्निर्णय इत्याह स एव (पितामह एव)। लेख्य यत्र न विद्येत न भुक्तिनं च साक्षिणः । न च दिव्यावतारोस्ति प्रमाणं तत्र पार्थिवः ।। निश्चेतुं ये न शक्याः स्युर्वादाः सन्दिग्धरूपिणः॥ तेषां नृपः प्रमाणं स्यात् स सर्वस्य प्रभुर्यतः ॥ स्मृतिचद्रिका २, पृ० २६ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002790
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size12 MB
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