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________________ अपराधों, पदों, छलों की व्याख्या; न्यायाधीश ७१७ रूप से कोई आवेदन न करे तब भी राजा ऐसे मामलों में अपनी ओर से तहकीकात ( अनुसंधान) कर सकता है । सवर्त (स्मृतिचन्द्रिका १, पृ० २८, पराशरमाधवीय ३, पृ० ४४-४५ में उद्धृत ) ने भी अपराधों की एक सूची दी है, जो उपर्युक्त सूची से कुछ भिन्न है । देवपाल देव के नालन्दा ताम्रपत्र (एपिग्रैफिया इण्डिका, जिल्द १७, पृ० ३१०, पृ० ३२१ ) में 'दशापराधिक' नामक अधिकारी का उल्लेख हुआ है । सातवीं शताब्दी के उपरान्त के सभी प्रकार के करों की माफी के विषय में जो भी दानपत्र आदि निकलते रहे हैं उनमें 'दशापराधों' का भी उल्लेख हुआ है ( एपि० इण्डिo, जिल्द १, पृ० ८५,८८, वही, जिल्द १७, पृ० ३१०, ३२१; गुप्ताभिलेख, सं० ३६, पृ० १७६ में 'सदशापराध:' का उल्लेख; एपि० इण्डि० जिल्द ७, पृ० २६, ४० में 'दशापराधादिसमस्तोत्पत्तिसहितो दत्तः' का तथा एपि० इंडि०, जिल्द ३, पृ० ५३; वही, जिल्द ३, पृ० २६३, २६६ में 'सदण्डदशापराधः ' का उल्लेख हुआ है ) । अब हम पदों की व्याख्या करें। ऊपर वर्णित २२ पद 'व्यवहारपदों' से भिन्न हैं । २२ पदों में कुछ ये हैं--तीक्ष्ण हथियार से किसी पशु का शरीर विदीर्ण करना, उपजती हुई खेती का नाश करना, अग्नि लगाना, कुमारी कन्या के साथ बलात्कार करना, गड़े हुए धन को पाकर छिपाना, सेतु, कण्टक आदि को नष्ट करना आदि । १६ राजा की उपस्थिति में सभ्य व्यवहार के विरोधी कार्य छल कहे जाते हैं और ये ५० हैं । पितामह ने इनके भी नाम गिनाये हैं । कुछ छल ये हैं - मार्गाविरोध, धमकी देते हुए हाथ उठाना, दुर्ग की दीवारों पर बिना आज्ञा के कूदकर चढ़ जाना, जलाशय नष्ट करना, मन्दिर तोड़ना, खाई बन्द करना आदि । शुक्र० (४।५।७३- ८८ ) ने अपराधों, पदों एवं छलों से सम्बन्धित नारद एवं पितामह के श्लोक उद्धृत किये हैं और एक स्थान ( ३।६ ) पर दस पापों की सूची दी है, जिसमें कहे गणे पाप इन अपराधों से भिन्न हैं । न्याय-कार्य मुख्यतः राजा के अधीन था। राजा प्रारम्भिक एवं अन्तिम न्यायालय था । स्मृतियों एवं निबन्धों का कहना है कि अकेला राजा न्याय कार्य नहीं कर सकता, उसे अन्य लोगों की सहायता से न्याय करना चाहिए। मनु ( ८1१-२ ) एवं याज्ञ० (२1१ ) का मत है कि राजा को बिना भड़कीले वस्त्र धारण किये, विद्वान् ब्राह्मणों एवं मन्त्रियों के साथ सभा ( न्याय - कक्ष ) में प्रवेश करना चाहिए तथा उसे क्रोधपूर्ण मनोभाव एवं लालच से दूर हटकर धर्मशास्त्रों के नियमों के आधार पर न्याय करना चाहिए । यही बात कात्यायन ( जीमूतवाहन की व्यवहारमातृका, पृ० २७८ एव याज्ञ० २।२ की व्याख्या में मिताक्षरा द्वारा उद्धृत ) ने भी कही है और जोड़ा है कि जो राजा न्यायाधीश, मन्त्रियों, विद्वान् ब्राह्मणों, पुरोहित एवं सभ्यों की उपस्थिति में विवाद निर्णय करता है, वह स्वर्ग का भागी होता है । और देखिए शुक्र ० (४|५|५) । राजा को स्वयं अपने से निर्णय नहीं करना होता था, प्रत्युत उसे न्यायाधीश से सम्मति लेकर ऐसा करना पड़ता था, किन्तु सम्मति लेने के उपरान्त भी वास्तविक उत्तरदायित्व उसी का माना जाता था । ( नैकः पश्येच्च कार्याणि, शुक्र० ४/५/६ ) | नारद ने लिखा है कि राजा को न्यायाधीश की सम्मति के अनुसार चलना चाहिए (प्राड्विवाकमते स्थितः ) । ऐसा कहना कि बहुत समझदार होने पर भी न्याय अकेले नहीं करना चाहिए, १६. उत्कर्ती सस्यधाती चाप्यग्निदश्च तथैव च । विध्वंसकः कुमार्याश्च । निधानस्योपगोपकः ।। सेतुकण्टकभेत्ता 'च क्षेत्रसंचारकस्तथा । आरामच्छेदकश्चैव गरवश्च तथैव च ॥ राज्ञो द्रोहप्रकर्ता च तन्मुद्राभेदकस्तथा । तन्मन्त्रस्य प्रभेत्ता च बद्धस्यैव च मोचकः ॥ भोगदण्डौ च गहह्णाति दानमुत्सेकमेव ( ? मुत्सर्गमेव ) च । पठहाघोषणाच्छादी द्रव्यमस्वामिकं च यत् ॥ राजावलीढं द्रव्यं यद्यच्चैवाङ्गविनाशनम् । द्वाविंशति पदान्याहुर्नृपज्ञेयानि पण्डिताः ॥ ये पद्य पितामह के हैं, जिन्हें स्मृतिचन्द्रिका २, पृ०२८; पराशरमाधवीय ३, पृ० ४५; सरस्वतीविलास, पृ० ७३: व्यवहारप्रकाश पृ० ३७ ने उद्धृत किया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002790
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size12 MB
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