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________________ ७१६ धर्मशास्त्र का इतिहास (१२) द्विद्वार -- जिसमें दो द्वार हों, अर्थात् यह (व्यवहार) अभियोग में वर्णित कथनों तथा उत्तर पर आधारित है । (१३) द्विगति - - इसकी दो गतियाँ होती हैं, अर्थात् निर्णय सत्य या झूठ पर आधारित हो सकता है । (१४) द्विपद - - इसके दो पैर हैं, यथा धनमूल (सिविल या माल) तथा हिंसामूल (क्रिमिनल या फौजदारी) । यह कात्यायन ( २६ ) के मत से है । (१५) द्विरुत्थान- इसके दो स्रोत हैं ( देखिए ऊपर संख्या १४ ) | हारीत एवं कात्यायन (३०) ने इसे उल्लि खित किया है। (१६) द्विस्कन्ध - इसके दो स्कन्ध हैं, यथा धर्मशास्त्र एवं अर्थशास्त्र । यह मत कात्यायन (३२) का है। (१७) द्विफल -- इसके दो फल हैं; जीत या हार ( कात्यायन ३२ ) । (१८) एकमूल -- हारीत एवं कात्यायन ने इसे उल्लिखित किया है। इसका तात्पर्य है कि व्यवहार का मूल या जड़ एक ही है अर्थात् जो निर्णीत होने वाला है वह एक ही होता है । (१६) सपण एवं अपण -- जब दोनों दल या केवल एक (वादी या प्रतिवादी ) हार होने पर कुछ धन देने का वचन (गर्व, घमण्ड या क्रोध या अपने मुकदमे की सचाई पर विश्वास होने के कारण ) दे तो इसे सपण ( याज्ञ० २1१८ ) कहा जाता है। देखिए, विष्णुधर्मोत्तर ( ३ | ३२४ | ४४ ) | मुकदमा बिना बाजी का ( अपण ) भी हो सकता है। नारद (१।४) ने सपण एवं अपण के स्थान पर क्रम से सोत्तर एवं अनुत्तर शब्दों का प्रयोग किया है। स्मृतिचन्द्रिका (२, पृ०२७ - २८), पराशरमाधवीय ( ३, पृ० ४२-४५), सरस्वतीविलास ( पृ०७३-७४) एवं व्यवहारप्रकाश ( पृ० ३६-३८) का कथन है कि पितामह के मत से बिना किसी व्यक्ति द्वारा अभियोग या अर्जी उपस्थित किये राजा कुछ विषयों ( मामलों) की छानबीन स्वयं कर सकता है और ऐसे मामलों को अपराध, पद एवं छल की संज्ञाएँ मिलती हैं । १६ इन ग्रन्थों में अपराधों की संख्या १०, पदों की २२ एवं छलों की ५० कही गयी है । स्वयं राजा ऐसे विषयों को जान सकता है, या सूचक नामक अधिकारी बता सकता है, या कोई व्यक्ति, जिसे स्तोभक कहा जाता है, राजा को सूचित कर सकता है । १७ स्तोभक धन की लिप्सा से व्यक्तिगत रूप से सूचना देने का कार्य करता है। नारद के मत से दस अपराध ये हैं-- राजा की आज्ञा का उल्लंघन, स्त्रीवध, वर्णसकर, परस्त्रीगमन, चौर्य, बिना पति के गर्भधारण, वाक्पारुष्य ( मानहानि ), अश्लीलता (अवाच्य ), दण्डपारुष्य ( मार-पीट ) एवं गर्भपात । १८ इनके करने से अर्थदण्ड लगता है, अतः ये अपराध नाम से घोषित हैं । यहाँ यह जान लेना परमावश्यक है कि इनमें कतिपय व्यवहारपदों में उल्लिखित हैं और कुछ, यथा वर्णसंकर आदि, नारद द्वारा प्रकीर्णक में संकलित | यदि व्यक्तिगत १६. छलानि चापराधांश्च पदानि नृपतेस्तथा । स्वयमेतानि गृहणीयान्नृपस्त्वा वेद कैविना ॥ पितामह (स्मृतिचन्द्रिका २, पृ० २७ एवं पराशरमाधवीय २, पृ० ४२ में उद्धृत ) । १७. शास्त्रेण निन्दितं त्वर्थमुख्यो राज्ञा प्रचोदितः । आवेदयति यत्पूर्वं स्तोभकः स उदाहृतः । नृपेणैव नियुक्तो यः परदोषमवेक्षितुम् । नृपस्य सूचयेज्ज्ञात्वा सूचकः स उदाहृतः ॥ कात्यायन (देखिए स्मतिचन्द्रिका ३, पृ० २८, पराशरमाधवीय ३, पृ० ४५ एवं व्यवहारप्रकाश, पृ० ३८ ) । १८. आज्ञालंघनकर्तारः स्त्रीवधो वर्णसंकरः । परस्त्रीगमनं चौर्य गर्भश्चैव पति विना । वाक्पारुष्यमवाच्यं यदेण्डपारुष्यमेव च । गर्भस्य पातनं चैवेत्यपराधा दशैव तु ॥ नारद (स्मृतिचन्द्रिका २, पृ० २८ पराशरमाधवीय ३, पृ० ४४; सरस्वतीविलास, पृ० ७३, केशव के दण्डनीतिप्रकरण, १२ पृ० में उद्धृत) । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002790
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size12 MB
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