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व्यवहार के विविध अंग
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की अवहेलना की गयो। ऐसी स्थिति में राजशासन ही निर्णय का कानन या निर्णय माना जायगा। इसी प्रकार जहाँ न साक्षी हों, न लेख-प्रमाण हो, न अधिकार हो, न दिय (सत्य) की ही गुंजाइश हो और न शास्त्रीय अथवा परम्परा की बातें या नियम हों, वहाँ राजा ही अपने ढंग से निर्णय करता है । देखिए, पितामह (स्मृतिचन्द्रिका २, पृ० २८ में उद्धृत) तथा अन्य ग्रन्थ । कात्यायन (श्लोक ३६-४३, व्यवहारप्रकाश, पृ०८६ में उद्धृत) ने उपर्युक्त बातों पर अपने ढंग से प्रकाश डाला है।
तो ये सब चतुष्पाव-सम्बन्धी बातें हुई । अब हम व्यवहार के सम्बन्ध में आने वाले अन्य नियम एवं अंगों पर प्रकाश डालेंगे।
(२) चतुःस्थान--अर्थात् चार आधार वाला, यथा--सत्य, साक्षी, पुस्तकरण एवं राजशासन । (३) चतुस्साधन-चार साधन, यथा--साम, दान, भेद एवं दण्ड वाला। (४) चतुहित--अर्थात् चारों वर्गों तथा चारों आश्रमों को लाभ पहुंचाने वाला। (५) चतुापी--यह वह है जो चारों, अर्थात विवादियों, साक्षियों, सम्यों तथा राजा पर छाया रहे ।
(६) चतुष्कारी--जो चार फल उत्पन्न करे, यथा धर्म (न्याय), लाभ, ख्याति एवं जनता के लिए प्रेम या आदर का भाव।
(७) अष्टांग--इसके आठ अंग या सदस्य हैं, यथा राजा, उसके अच्छे अधिकारी (उच्च न्यायाधीश), सभ्य (प्यूनी जज अर्थात् अवर न्यायाधीश), शास्त्र (कानून की पुस्तकें अथवा न्याय या व्यवहार-सम्बन्धी स्मृति-ग्रन्थ), गणक, लिपिक, अग्नि एवं जल।
(८) अष्टादश-पद--इसमें अठारह अधिकारों या स्वत्वों (ऋणादान तथा अन्य, जिनकी सूची ऊपर दी जा चुकी है) का वर्णन है।
(६) शतशाख--इसकी सौ शाखाएँ हैं। यह सख्या अनुमानतः है। नारद (१।२०-२५) का कहना है कि १८ स्वत्वों में १३२ उपशीर्षक (ऋणादान २५, उपनिधि ६, सम्भूयसमुत्थान ३, दत्ताप्रदानिक ४, अशुश्रूषा ६, वेतन ४, अस्वामिविक्रय २, विक्रीयादान १, क्रीतानुशय ४, समयस्यानपाकर्म १, क्षेत्रवाद १२, स्त्रीपुंसयोग २०, दायभाग १६, साहस १२, वावपारुष्य एवं दण्डपारुष्य ३, द्यूतसमाह्वय १, प्रकीर्णक ६) हैं।
(१०) त्रियोनि-जिसके तीन स्रोत या प्रेरणाएं हों,यथा काम, क्रोध एवं लोभ ।
११) द्वयभियोग-दो प्रकार के अभियोगों पर आधारित, यथा सन्देह या सच्ची घटना पर । नारद (१।२७) का कहना है कि ऐसे लोगों पर, जो कुख्याति वाले लोगों, यथा चोरों, जुआरियों, व्यभिचारियों आदि के हैं, सन्देहवश अभियोग लगाया जाता है तथा उन पर, जिनके पास चोरी गयी वस्तु पायी गयी (तत्त्व अन्तिम प्रकार भी दो प्रकार का है। अभियोग ऋणात्मक (अभावात्मक) तथा धनात्मक (भावा पहले में प्रतिवादी (डिफेण्डेण्ट) ने धन उधार लिया, किन्तु लौटाया नहीं, ऐसा भी अभियोग सम्भव है और दूसरे प्रकार के अभियोग में प्रतिवादी ने वादी (प्लेंटिफ) के स्वत्व को छीन लिया हो, ऐसा अभियोग लगा रहता है।१५ और देखिए मिताक्षरा (याज्ञ० २।५) ।
१५. न्यायं मे नेच्छते कर्तु मन्यायं वा करोति च । न लेखयति यस्त्वेवं तस्य पक्षो न सिध्यति ॥ कात्यायन (विश्वरूप द्वारा याज्ञ० २१६ में उद्धृत); स्मृतिचन्द्रिका (२, पृ० ३६); मिताक्षरा (याज्ञ०, २१५) । 'न्यायागतं मदीयं धनं गृहीत्वा न ददादीतिवत् प्रतिषेधरूपेण मदीय क्षेत्रादिकमपहरतीति विधिरूपेण वा यो न लेखयतीत्यर्थः ।' स्मृतिचन्द्रिका (२, पृ० ३६) ।
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