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________________ ७१४ धर्मशास्त्र का इतिहास जाता है तब उसे व्यवहार कहा जाता है । 'साक्षियों' का उल्लेख उदाहरणस्वरूप किया गया है और इसमें लेख-प्रमाण, स्वत्व या कब्जा तथा अन्य प्रमाण भी सम्मिलित हैं । जब प्रतिवादी (डेफेगडेण्ट) सीधे ढंग से उत्तर न देने का अपराधी सिद्ध होता है अथवा उसके उत्तर दोषपूर्ण होने से स्वीकृत नहीं होते और निर्णय उसके विपक्ष में जाता है, तब भी ऐसा निर्णय व्यवहार द्वारा ही किया गया माना जाता है । चरित्र से तात्पर्य है 'देश, ग्राम या कुल की परम्परा या रूढ़ि' (देश स्थितिः पूर्वकृता चरित्नं समुदाहृतम्--व्यास, जैसा कि स्मृतिचन्द्रिका २, पृ.११ एवं व्यवहारनिर्णय पृ० १३८ न उद्धृत किया है)। और देखिए नासिक अभिलेख सं० १२ (एपिगैफिया इण्डिका, जिल्द, ८, १०८२-'फलकवारे चरित्रतोति') । नारद ने प्रकीर्णक २४ में यही संकेत दिया है, यथा-'स्थित्यर्थ पृथिवीपालेश्चरित्रविषण: कृताः।' चरित्र का अर्थ 'अनुमान' (अधिकार एवं पूर्वधारणा) भी है; 'अनुमानेन निर्णीतं चरिवमिति कथ्यते' (बृहस्पति-व्यवहारनिर्णय, पृ० १३६ एवं पराशरमाधवीय ३, पृ० १६८ में उद्धृत)। रूढ़ियों एवं परम्पराओं के आधार पर भी निर्णय दिया जाता था और वैसी स्थिति में स्मृतिसम्मत नियमों का विचार नहीं होता था। "चरित्र पुस्तकरणे" का अर्थ है कि ऐसी रूढ़ियां जो राजा द्वारा लिखित कर ली गयी हों, निर्णय के लिए प्रामाणिक मान ली जाती हैं। "चरित्नं तु स्वीकरणे" का तात्पर्य है ऐसे प्रयोग या रूढ़ियाँ जो प्रजा एवं न्यायालयों द्वारा निर्णय के लिए प्रामाणिक मान ली गयी हों। राजशासन वह है जो राजा द्वारा दिया जाता है, किन्तु वह स्मृतिविरुद्ध नहीं होता और न स्थानीय रूढ़ियों के विरुद्ध होता है। वह राजा की मेधा का परिचायक होता है और तभी कार्यान्वित होता है जब कि दोनों पक्ष प्रबल हों और उनके पक्ष में जो प्रमाण हों वे शास्त्रीय एव अकाट्य हों। उपर्युक्त चारों अर्थात् धर्म, व्यवहार, चरित्र एवं राजशासन का विवेचन बृहस्पति (पराशरमाधवीय ३, पृ० १४८) एवं कात्यायन (श्लोक ३५-३८, स्मृतिचन्द्रिका २, पृ० १०; पराशरमाधवीय ३, पृ० १६-१७ एव सरस्वतीविलास पृ०७ में उद्धृत) में हुआ है। बृहस्पति ने चरित्र के दो अर्थ दिये हैं; (१) वह जो अनुमान द्वारा निर्णीत है तथा (२) देश की परम्परा या रूढ़ि। ऐसा कहना कि इन चारों में एक के उपरान्त आने वाला दूसरा अपने पूर्व वाले का महत्त्व कम कर देता है, ठीक नहीं है । देखिए कात्यायन (४३,व्यवहारप्रकाश पृ० ६० द्वारा उद्धृत)। यदि कोई विवादी (मुकदमा लड़ने वाला) यह कहे कि वह अपना मकदमा 'दिव्य' द्वारा तय कराना चाहता है और दूसरा कहे कि वह मानवीय साधनों (साक्षियों,लेखप्रमाणों आदि) द्वारा तय कराना चाहता है, तो 'दिव्य' का प्रयोग नहीं किया जाता, प्रत्युत साधारण ढंग अपनाया जाता है। इसके लिए देखिए कात्यायन २१८ (याज्ञ०२।२२ की व्याख्या में मिताक्षरा द्वारा उद्धृत)। यहाँ पर व्यवहार के पक्ष में धर्म की अवहेलना की गयी है। एक अन्य उदाहरण के लिए देखिए, पराशरमाधवीय ३(पृ० १८)। चारों वर्गों में किसी एक वर्ण का एक व्यवित राजद्रोह करता है और कायरतावश अपना अपराध स्वीकार कर लेता है ( यह दिव्य या सत्य है),किन्तु साक्षीगण (मनु के १०।१३० वचन पर विश्वास करके कि मृत्यु-दण्ड होते समय साक्षीगण झूठ बोल सकते हैं) का कहना है कि उसने राजद्रोह नहीं किया और अपराधी छूट जाता है । यहाँ पर भी व्यवहार (साक्षियों के कथन पर भी मुकदमा चलता है) के पक्ष में धर्म की अवहेलना हुई है। इसी के समान अन्य उदाहरण के लिए देखिए, स्मृतिचन्द्रिका (२, पृ० ११) । केरल में वेश्या के यहाँ जाना परम्परा से गहित नहीं माना जाता था। अतः यदि यह माक्षियों द्वारा प्रमाणित हो जाय कि केरल में किसी ने ऐसा किया तोस्थानीय राजा उसे अर्थ-दण्ड नहीं भी दे सकता था। या कल्पना कीजिए कि किसी ने किसी आभीर की पत्नी के साथ व्यभिचार किया और उस पर अभियोग चला और साक्षियों द्वारा यह सिद्ध भी हो गया। तब अभियोगी यह कह सकता है कि आभीरों में ऐसा नियम है कि उनकी स्त्रियों के साथ व्यभिचार करने पर दण्ड नहीं मिलता। इस प्रकार के मुकदमों में चरित्र (परम्परा या रूढ़ि या देश-प्रयोग) व्यवहार की अवहेलना कर देता है। किन्तु मान लीजिए कि अपनी प्रजा के कुछ लोगों के नैतिक उत्थान के लिए राजा आज्ञा निकालता है कि अमुक तिथि से जो किसी आभीर की पत्नी से व्यभिचार करता पाया जायगा उसे दण्ड दिया जायगा, तो यहाँ पर कहा जायगा कि राजशासन द्वारा चरित्र Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002790
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size12 MB
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