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व्यवहार के विविध अंग
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मूल दो हैं; (१) जो देय है उसे न देना तथा (२) हिंसा । यद्यपि इस रीति से १८ प्रकार के अर्थमूल एवं हिंसामूल झगड़े थे, किन्तु उन्हें निपटाने के नियमादि एक-साथ ही थे, वे एक ही प्रकार की कचहरियों में सुने सुनाये जाते थे । आधुनिक काल की भाँति दो प्रकार की कचहरियों की परम्परा नहीं थी । बृहस्पति ने कहा है कि झगड़ों का निर्णय केवल शास्त्र-वर्णित नियमों के आधार पर ही नहीं होना चाहिए, प्रत्युत तर्क एवं विवेक को भी महत्ता मिलनी चाहिए।
नारद ० (१1८-२६), बृहस्पति, कात्यायन, अग्निपुराण (२५३।१-१२, जहाँ नारद के श्लोक ज्यों-के-त्यों उद्धृत हैं) तथा अन्य ग्रन्थों ने व्यवहार के विषय में कई एक निर्देश दिये हैं, यथा - यह द्विफल है, यह चतुष्पाद है आदि ।-
(१) चतुष्पाद - - चतुष्पाद का अर्थ है चार पाद अर्थात् धर्म, व्यवहार, चरित्र एवं राजशासन ( नारद १1१० ) । याज्ञवल्क्य ( २८ ) एवं बृहस्पति के अनुसार चतुष्पाद हैं--अभियोग, उत्तर क्रिया एवं निर्णय । किन्तु कात्यायन अपरार्क पृ० ६१६ में उद्धत ) के अनुसार चतुष्पाद हैं-अभियोग, उत्तर, प्रत्याकलित एवं क्रिया । १४
( ३१,
धर्म तथा अन्य तीन, वास्तव में अन्तिम निर्णय के चार पाद हैं । अन्तिम निर्णय व्यवहार की चार स्थितियों में एक स्थिति या दशा है, अतः गौण अर्थ में या खींचातानी करने से ये व्यवहार के चतुष्पाद हैं। इनमें प्रत्येक के दो प्रकार हैं। ( देखिए, स्मृतिचन्द्रिका पू० १० ११, पराशरमाधवीय ३, पृ० १६८ - १६६, व्यवहारप्रकाश पृ० ८७-८८, जहाँ बृहस्पति के श्लोकों की पूर्ण व्याख्या उपस्थित की गयी है) ।
धर्म के अनुसार निर्णय का तात्पर्य यह है कि अपराधी अपना दोष मान ले और वादी को उसका धन मिल जाय उसकी मांग की पूर्ति हो जाय। इसमें मुकदमा आगे नहीं चलता, अर्थात् साध्य, लेख प्रमाण आदि की क्रियाएँ नहीं होतीं । इस प्रकार दिव्य (आडिएल) द्वारा प्रमाण एकत्र करके निर्णय देना भी धर्मपाद माना जाता है। दिव्य को सत्य भी कहा जाता है और दोनों को एक ही माना जाता है। इसमें अपराधी सत्य कहता है और इस प्रकार के निर्णय को धर्म का निर्णय कहा जाता है ( देखिए, बृहदारण्यकोपनिषद् ||४|१४ ) । जब कचहरी में साक्षियों द्वारा मुकदमा लड़ा
१४. अर्थशास्त्र (४।१ ) के अन्त में वो श्लोक आये हैं-- धर्मश्च व्यवहारश्च चरित्रं राजशासनम् । विवादार्थश्चतुष्यावः पश्चिमः पूर्वबाधकः । तत्र सत्ये स्थितो धर्मो व्यवहारस्तु साक्षिषु । चरित्र संग्रहे पुंसां राज्ञामाता तु शासनम् । यही बात कुछ हेर-फेर के साथ नारद० ( १1१०-११ ) एवं हारीत ( सरस्वतीविलास पू० ५८ में उद्धृत ) में भी है। इन श्लोकों को व्याख्या विस्तारपूर्वक अपरार्क ( पृ० ५६७), स्मृतिचन्द्रिका (२, पृ० १०-११ ), व्यवहारप्रकाश ( पृ० ७, ८८-८६) तथा अन्य निबन्धों में की गयी है। इन श्लोकों में व्यवहार-सम्बन्धी विवादों के निर्णय के साधनों का वर्णन है । बृहस्पति का कहना है-- धर्मेण व्यवहारेण चरित्रेण नृपाज्ञया । चतुष्प्रकारोऽभिहितः सन्दिग्धेऽर्थे विनिर्णयः ॥ (स्मृतिचन्द्रिका २, पृ० १०; पराशरमाधवीय ३, पृ० १६; व्यवहारप्रकाश पृ० ६ ) ; व्यवहारोऽपि चरित्रेण बाध्यते यथा - साक्षिभिः साधितेऽप्याभीरस्त्रियाः पुरुषान्तरोपभोगे तब्दण्डे च व्यवहारतः प्राप्तेऽपि राजकुलाधिगत लिखितान्निवर्तते । एवं हि तत्र लिखितम् - आभीरस्त्रीणां व्यभिचारेऽपि सति दण्डो न ग्राह्य इति । अपरार्क पृ० ५६७ (याज्ञ० २1१७ ) ।
अपरा ( पृ०६१६ ) के अनुसार प्रत्याकलित का अर्थ है न्यायाधीश एवं सभ्यों का विचार-विमर्श, जिसके द्वारा प्रमाण एवं प्रमाण की विधि का पता चलाया जाता है। मिताक्षरा (याज्ञ० २१८) के अनुसार इस अर्थ में प्रत्याकलित व्यवहारपाद नहीं है, क्योंकि मुकदमेबाजों से इसका सीधा सम्पर्क नहीं है। नारद (२1११) के मत से प्रत्याकलित का अर्थ है अभियोग या उसके उत्तर ( अर्थात् लिखित पूरक वक्तव्य ) में जोड़ा हुआ भाग-वादिभ्यां लिखिताच्छेष यत्पुनर्वाविना स्मृतम् । तत्प्रत्याकलितं नाम स्वपादे तस्य लिख्यते ॥
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