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________________ ७१२ धर्मशास्त्र का इतिहास कुछ अन्य बातें भी सम्मिलित कर ली हैं, यथा उधार ली हुई वस्तु को न लौटाना, ब्राह्मण होने के बहाने से घाट का किराया न देना, दूसरे की रखैल से सम्बन्ध रखना, कर एकत्र कर स्वयं हड़प लेना, चाण्डाल का आर्य नारी को दूषित करना, देवों एवं पितरों के सम्मान में किये गये भोज में बौद्ध,आजीवक या शूद्र साधु को निमन्त्रित करना,गम्भीर पाप न करने पर भी माता-पिता, बच्चे,पत्नी या पति,भाई या बहिन, गुरु या शिष्य को त्याग देना, किसी को अवैधानिक रूप से बन्दी बनाना आदि । कौटिल्य ने नारद, बृहस्पति एवं कात्यायन के समान उन सभी बातों को, जिन्हें राजा अपनी ओर से उठाता है, प्रकीर्णक के अन्तर्गत नहीं रखा है, बल्कि उन्हें कण्टकशोधन के अन्तर्गत रखा है। कौटिल्य ने स्वयं लिखा है (४११ एवं १३)कि कण्टकशोधन के अन्तर्गत दिये गये विषय उन विषयों के समान ही हैं जो दण्डपारुष्य-जैसे हैं और धर्मस्थीय के अन्तर्गत वणित हैं। उदाहरणार्थ हम ४१ को देख सकते हैं, यथा--यदि वैद्य असावधानीवश किसी रोगी के किसी मर्मस्थल की हानि कर देता है तो वह दण्डपारुष्य समझा जायगा । इससे स्पष्ट है कि नारद एवं बृहस्पति (जिन्होंने राजा द्वारा चलाये गये अभियोगों को प्रकीर्णक के अन्तर्गत रखा है) के बहुत पहले ही कौटिल्य ने न्याय्य शासन (जुडिशिएल एडमिनिस्ट्रेशन) की कल्पना कर ली थी। माल और फौजदारी अभियोग व्यवहारपदों का उल्लेख बहुत प्राचीन एवं प्रामाणिक है, किन्तु उनका वर्गीकरण वैज्ञानिक सिद्धांत पर कदाचित ही आधारित है। सरस्वतीविलास (पृ० ५१) में उल्लिखित एक लेखक यानी निबन्धकार के अनुसार ऋणादान से लेकर दायविभाग तक के सारे व्यवहारपदों में जो मांग प्रस्तुत रहती है, वह न्याय-सिद्ध होने पर दूसरे दल द्वारा देय मानी जाती है; किन्तु वाक्पारुष्य,दण्डपारुष्य,साहस,द्यूत एवं बाजी लगाने आदि में दण्ड के रूप में ही प्रमुख माँग की पूर्ति होती है। यहाँ पर माल (सिविल) एवं फौजदारी (क्रिमिनल) से सम्बन्धित मुकदमों की ओर संकेत मिल जाता है।१२ इसी से बृहस्पति ने व्यवहारों को दो प्रकारों में बाँटा है, यथा--(१) धन-सम्बन्धी एवं (२) हिंसा-सम्बन्धी । याज्ञवल्क्य (२।२३) ने अर्थविवाद (सिविल झगड़े) का उल्लेख किया है, अतः स्पष्ट है कि उन्होंने अर्थ-सम्बन्धी एवं मार-पीट सम्बन्धी झगड़ों को दो भागों में बाँटा है। धन या अर्थ से सम्बन्धित मुकदमे चौदह भागों में तथा हिंसा से उत्पन्न मुकदमे चार भागों में बँटे हुए हैं । १३अन्तिमप्रकार के मुकदमों को वाक्पारुष्य (मानहानि अर्थात् अपमान तथा गाली-गलौज से सम्बन्धित), दण्डपारुष्य (आक्रमण अर्थात मार-पीट करना या मर्दन करना), साहस (हत्या तथा अन्य प्रकार की हिंसाएँ) एवं स्त्रीसंग्रहण (व्यभिचार या परभार्यालंघन) के नाम से पुकारा जाता है । यहाँ पर अर्थमूल या धानमूल (सिविल) तथा हिंसामूल (क्रिमिनल) नामक झगड़ों का अन्तर स्पष्ट हो गया है। कात्यायन ने भी कहा है कि झगड़ों १२. तथा च गौतमसूत्रम्-द्विरुत्थानतो द्विगतिरिति । व्यवहार इत्यनुषज्यते । तत्र निबन्धनकारेणोक्तम्-- ऋणादानादिदायाविभागान्तानां देयनिबन्धनत्वं साहसादिपञ्चकस्य दण्डनिबन्धनत्वमिति द्विरुत्थानतेत्यर्थ इति । सरस्वतीविलास, पृ० ५१ । १३. द्विपदो व्यवहारः स्यादहिंसासमुद्भवः । द्विसप्तकोऽर्थमूलस्तु हिंसामूलश्चतुर्विधः ॥...एवमर्थसमुत्थानि पदानि तु चतुर्दश । पुनरेव प्रभिन्नानि क्रियाभेदादनेकधा । पारुष्ये द्वे साहसं च परस्त्रीसंग्रहस्तथा। हिंसोद्भवपदान्यवं चत्वार्याह बृहस्पतिः॥ स्मृतिचन्द्रिका (२, पृ०६); व्यवहारमयूख (पृ० २७७); पराशरमाधवीय (३, पृ० २०२१); साध्यं वादस्य मूलं स्याद्वादिना यन्निवेदितम् । देयाप्रदानं हिंसा चेत्युत्थानद्वयमुच्यते ॥ कात्यायन (३०), स्मृतिचन्द्रिका (२, पृ० १३) में उद्धृत। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002790
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size12 MB
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