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कण्टक-शोधन (राज्यकृत अभियोग)
७०६ में की है और कण्टकाशोधन नामक परिच्छेद में ऐसे विषयों की चर्चा की है जो प्रदेष्टा (आजकल के कोरोनरों एवं पुलिस मजिस्ट्रेटों के समान) द्वारा फैसले होते थे। कौटिल्य ने लिखा है कि व्यवहारपदों का फैसला (निर्णय) धर्मस्थ (न्यायाधीश) लोग करते थे। 'कण्टक' का तात्पर्य है हानिकारक व्यक्ति (मनु ६।२५२ एवं कौटिल्य ४)। कण्टकशोधन में राजकर्मचारियों के अन्तर्गत निम्नलिखित बातें आती थीं-बढई एव लोहार जैसे शिल्पकारों को सामान्य श्रेणियों में कार्य करना पड़ता था और उन्हें लोगों से काम करने के लिए सामग्री मिला करती थी, यदि वे समय के भीतर बनाकर सामग्री नहीं देते थे तो उन्हें पारिश्रमिक का भाग कम मिलता था और पारिश्रमिक का दुगुना अर्थ-दण्ड देना पड़ता था। इसी प्रकार के नियम जुलाहों के लिए भी बने थे। धोबियों को लकड़ी के तख्तों या चिकने पत्थरों पर कपड़ा धोना पड़ता था, यदि वे इस नियम का उल्लंघन करते थे तो उन्हें क्षतिपूर्ति के अतिरिक्त ६ पण अर्थ-दण्ड देना पड़ता था, उन्हें किसी अन्य को भाड़े पर कपड़ा देने पर या बेचने पर १२ पण अर्थ-दण्ड देना पड़ता था। इसी प्रकार दजियों, सोनारों, वैद्यों, संगीतज्ञों, अभिनेताओं आदि के विषय में कानून बने थे। और देखिये कौटिल्य के अर्थशास्त्र का अध्याय ४ जहां विभिन्न अपराधों के दण्डों की चर्चा है । यदि कोई सोनार किसी से (नौकर या दास से) बिना राजकर्मचारी को सूचित किये सोना-चांदी क्रय करता है, उसे दूसरे रूप में नहीं बदल देता है या बदलता है या किसी चोर से सामग्री खरीदता है, तो उसे क्रम से १२, २४ या ४८ पण दण्ड-रूप में देने पड़ते थे। किसी सुवर्ण (सोने के सिक्के ) से (एक सुवर्ण का वाँ भाग) चुराने पर २०० पण दण्ड तथा एक धरण (चांदी के सिक्के) से एक माषक चुराने पर १२ पण दण्ड देना पड़ता था। ताँबा, सीसा, पीतल, काँसे के वरतन बनाने आदि में उचित से कम तोल करने पर दण्ड देना पड़ता था। जाली सिक्का बनाने, लेने या दूसरों को देने में १००० पण का दण्ड लगता था और राज्यकोष में जाली सिक्का डालने पर मृत्यु-दण्ड मिलता था। यदि कोई वैद्य किसी रोगी के भयंकर रोग की सूचना (राजकर्मचारी को) दिये बिना इलाज करता और रोगी मर जाता था तो उसे कठोर दण्ड मिलता था, यदि वैद्य की असावधानी से रोगी मर गया तो उसे मध्यम दण्ड मिलता था। किन्तु यदि रोगी किसी भयंकर कष्ट से आक्रान्त हो गया तो यह विषय दण्डपारुष्य (आक्रमण के अभियोग) के अन्तर्गत गिना जाता था। संगीतज्ञों एवं अभिनेताओं (भाणों) को वर्षा ऋतु में एक स्थान पर रहना पड़ता था, उन्हें अत्यधिक दान लेना अथवा किसी एक ही संरक्षक की प्रशंसा करना मना था; यदि वे इन सब नियमों का उल्लंघन करते थे तो उन्हें १२ पण दण्ड देना पड़ता था। ये ही नियम कठपुतली नचाने वालों तथा अन्य भिक्षुओं के लिए थे, किन्तु भिक्षुओं को पण-दण्ड के स्थान पर उतने ही कोड़े लगते थे। कौटिल्य (४।२) ने कूट तुलामान आदि (गलत बटखरे, तराजू आदि) रखने पर दण्ड-व्यवस्था दी है। जो लोग बुरी लकड़ी, लोहे, रत्नों, रस्सियों, कपड़ों को बहुत अच्छा कहकर बेचते थे, जो व्यापारिक वस्तुओं के विक्रय में गड़बड़ी उत्पन्न करते थे, जो लोग अनाजों, तेलों, दवाओं आदि में मिलावट करते थे तथा जो लोग स्थानीयएवं बाह्य देशों की सामग्रियों की बिक्री में वाणिज्य के अध्यक्ष द्वारा निर्धारित दाम से अधिक लेते थे, उन्हें दण्डित होना पड़ता था। कौटिल्य (४३) ने अग्नि, बाढ़ों, महामारियों, दुभिक्षों, चूहों, व्याघ्रों, सर्पो से सम्बन्धित आधियों, व्याधियों तथा विपत्तियों से बचने के लिए व्यवस्था दी है। यदि कोई चूहों को नष्ट करने के लिए रखे गये बिलावों (बिल्लियों) एवं नेवलों को पकड़ता या घायल कर देता था, उसे १२ पण देना पड़ता था। कौटिल्य (४।४) ने जनता की दुष्ट जनों से रक्षा समाहर्ता द्वारा करने की व्यवस्था दी है, क्योंकि कुछ लोग गुप्त रीति से लोगों को तंग कर सकते थे । समाहर्ता अपने गुप्तचरों द्वारा ऐसे लोगों का पता लगाता रहता
की संज्ञा देते हैं, वैश्य हैं और उन्हें भी वे अधिकार मिलने चाहिए। यह निर्णय या तो "पाखण्डि...विपर्ययः" या "तद्वृत्तिनियमः" के अन्तर्गत आयेगा।
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