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धर्मशास्त्र का इतिहास
याज्ञवल्क्य (२।५ = शुक्र० ४।५।६८ ) में व्यवहारपद की जो परिभाषा दी है ( जब कोई राजा को सूचित करता या आवेदन देता है - आवेदयति चेद् राज्ञे) उसमे व्यक्त होता है कि व्यवहारपद के अन्तर्गत वे झगड़े आते हैं जो वादियों या प्रतिवादियों की ओर से कचहरी में आरम्भ किये जाते या लाये जाते हैं । मनु (८१४३ ) का कहना है कि न तो राजा को और न किसी राजकर्मचारी को मुकदमा आरम्भ करना चाहिए और न राजा को किसी वादी द्वारा लाये गये मुकदमे को दबा देना चाहिए या उस पर मौन रह जाना चाहिए । गौतम (१३।२७) ने कहा है कि प्रतिवेदन करने वाले को विनम्रतापूर्वक अपने परिवेदन (अभियोग ) को न्यायाधिकारी के ममक्ष रखना चाहिए। कात्यायन (२७) का कहना है कि यदि वादी या प्रतिवादी न्यायालय में न आना चाहें तो राजा को अपने प्रभाव या लोभ के कारण उनके झगड़ों को निपटाने के लिए स्वयं सन्नद्ध नहीं होना चाहिए। ६ यही बात मानसोल्लास ( २।२०।१२७४) एवं शुक्र ० (४/५/६६) में भी पायी जाती है। कुछ ऐसे भी विषय रहे होंगे, जिनके विषय में जनता के लोग मौन ही रहते रहे होंगे, केवल राजा ही अपनी ओर से कुछ करता रहा होगा। मनु अठारहों व्यवहारपदों के विषय में कह लेने के उपरान्त ( ८1१ - - ६ । २५१ ) कहते हैं कि राजा को बहुत-से कण्टकों (काँटे, हानिकारक व्यक्तियों) को दूर करना चाहिए (E२५२-२५३) । नारद ने उन सभी विषयों को, जिनमें राजा अपनी ओर से हाथ बटाता है, एक विशिष्ट कोटि में रखा है, जिसे प्रकीर्णक कहा जाता है । ऐसे कुछ विषय निम्नलिखित हैं; राजा की आज्ञा का उल्लंघन, पुरप्रदान, प्रकृतियों (मन्त्रियों आदि) में परस्पर- विभेद, पाखण्डियों, नगमों, श्रेणियों, गणों के धर्म (कर्तव्य) एवं विपर्यय, पिता-पुत्र के झगड़े, प्रायश्चित्त में व्यतिक्रम ( गड़बड़ी), सुपात्रों को दी गयी भेटों का प्रतिग्रह, श्रमणों के कोप, वर्णसंकर दोष आदिआदि, तथा वे सभी विषय जो पहले ( व्यवहारपदों की व्याख्या में ) छूट गये हों - सभी प्रकीर्णक में सम्मिलित हैं । १० नारद के समान ही बृहस्पति ने प्रकीर्णक की परिभाषा की है। कौटिल्य ने व्यवहारपदों की चर्चा अपने धर्मस्थीय (३)
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2. न राजा तु वशित्वेन धनलोभेन वा पुनः । स्वयं कार्याणि कुर्वीत नराणामविवादिनाम् || कात्यायन (मनु ८।४३ की व्याख्या में कुल्लूक द्वारा एवं व्यवहारमयूख पू० २८५ में उद्धृत); स्वयं नोत्पादयेत्कार्यं समर्थः पृथिवीपतिः । नाददीत तथोत्कोचं दत्तं कार्याथिना नृपः ॥ मानसोल्लास २|२०।१२७४ ।
१०. प्रकीर्णके पुनर्ज्ञेयो व्यवहारो नृपाश्रयः । राज्ञामाज्ञाप्रतीघातस्तत्कर्मकरणं तथा ।। पुरप्रदानं संभेदः प्रकृतीनां तथैव च । पाखण्डिनंगमश्रेणीगणधर्म विपर्ययः ॥ पितापुत्रविवादश्च प्रायश्चित्तव्यतिक्रमः । प्रतिग्रहविलोपश्च कोपश्चाश्रमिणामपि ॥ वर्णसंकरदोषश्च तद्वृत्तिनियमस्तथा । न दृष्टं यच्च पूर्वेषु सर्वं तत्स्यात्प्रकीर्णकम् ।। नारव (प्रकीर्णक १-४ ) । इसे मिताक्षरा (याज्ञ० २।२६५) में उद्धृत किया गया है। स्मृतिचन्द्रिका (२, पृ० ३३१ ) ने 'पुरप्रमाण' पढ़ा है और इस प्रकार व्याख्या की है--- 'पौरच रितलेख्यप्रमाणम् । तत्र बृहस्पतिः- : -- एष वादिकृतः प्रोक्तो व्यवहारः समासतः । नृपाश्रयं प्रवक्ष्यामि व्यवहारं प्रकीर्णकम् ।।
पाँच संस्कृत काव्यों के विख्यात टीकाकार कोलाचल मल्लिनाथ द्वारा लिखित 'वैश्यवंशसुधाकर' की चर्चा डा० वी० राघवन ने की है (सर डेनिसन रॉस वाल्यूम आव पेयर्स, पृ० २३४ - २४० ) । वैश्यवंशसुधाकर नामक ग्रन्थ एक कमीशन की रिपोर्ट है जिसके अध्यक्ष थे मल्लिनाथ । यह रिपोर्ट जाति-सम्बन्धी झगड़े के ऊपर है और विद्यानगर के देवराय द्वितीय (१४२२ - १४६० ई०) के काल में लिखी गयी थी । वैश्यों को राज्य के २४ नगरों एवं १०८ तीर्थस्थानों में व्यापार करने की आज्ञा मिली थी। कोमटी नामक उपजाति ने भी अपने को वंश्य घोषित किया और व्यापार करना चाहा। इसी पर मुकदमा चला। मल्लिनाथ ने बड़ी खोजों एवं प्राणामिक ग्रन्थों के परीक्षण के उपरान्त तय किया कि वैश्य, वणिक्, नागर, ऊरुज, तृतीयजातीय पर्यायवाची हैं और कोमटी लोग भी, जिन्हें विरोधी गण विजाति
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